पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१९

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२२० 'मानसरोवर सौदर्य के पुतले न हों, पर कोई रमणी उनसे घृणा नहीं कर सकती। मेरी बहने उनके साथ श्रानंद से जीवन बिता रही हैं। फिर पिताजी मेरे ही साथ क्यों अन्याय करेगे। यह मैं मानती हूँ कि हमारे समाज में कुछ लोगों का वैवाहिक जीवन सुखकर नहीं है, लेकिन ससार में ऐसा कौन समान है, जिसमें दुखी परिवार न हों। और फिर हमेशा पुरुषों ही का दोष तो नहीं होता, बहुधा स्त्रियाँ ही विष की गाँठ होती हैं । मै तो विवाह को सेवा और त्याग का व्रत समझती हूँ और इसी भाव से उसका अभिवादन करती हूँ । हो, मैं तुम्हें विनोद से छीनना तो नहीं चाहती, लेकिन अगर २० जुलाई तक तुम दो दिन के लिए आ सको, तो मुझे जिला लो। ज्यों-ज्यों इस व्रत का दिन निकट पा रहा है, मुझे एक अज्ञात शका हो रही है, मगर खुद बीमार हो, मेरी दवा क्या करोगी-ज़रूर आना बहन ! तुम्हारी चंदा ( ३ ) मसूरी ५-८२५ प्यारी चदा-सैकड़ो बाते लिखनी हैं, किस क्रम से शुरू करूँ, समझ मे नहीं आता। सबसे पहले तुम्हारे विवाह के शुभ अवसर पर न पहुँच सकने के लिए क्षमा चाहती हूँ। मैं पाने का निश्चय कर चुकी थी, मैं और प्यारी चदा के स्वयबर मे न जाऊँ। मगर उसके ठीक तीन दिन पहले विनोद ने अपना आत्म समर्पण करके मुझे ऐसा मुग्ध कर दिया कि फिर मुझे किसी बात की सुध न रही। आह ! वे प्रेम के अंतस्तल से निकले हुए उष्ण आवेशमय और कपित शब्द अभी तक कानों मे गूंज रहे हैं। मैं खड़ी थी, और विनोद मेरे सामने घुटने टेके हुए प्ररेरणा, विनय और आग्रह के पुतले बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ही बार आता है, केवल एक बार, मगर उसकी मधुर स्मृति किसी स्वर्ग संगीत की भाँति जीवन के तार-तार में व्याप्त रहती है। तुम उस अानद का अनुभव न कर सकोगी-मैं रोने लगी, कह नहीं सकती, मन मे क्या-क्या भाव आये ; पर मेरी आँखों से श्रीसुओं