पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२३

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२२४ मानसरोवर था, मेरा चित्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यपि मैंने उनकी झलक भी न देखी थी, पर मुझे उनके प्रति एक अभूतपूर्व प्रेम का अनुभव हो रहा था। इस वक्त यदि मुझे मालूम हो जाता कि उनके दुश्मनों को कुछ हो गया है, तो मैं बावली हो जाती। अभी तक मेरा उनसे साक्षात् नहीं हुआ है, मैंने उनकी बोली तक नहीं सुनी है, लेकिन संसार का सबसे रूपवान् पुरुष भी भेरे चित्त को श्राकर्षित नहीं कर सकता। अब वही मेरे सर्वस्व हैं। आधी रात के बाद भाँवरे हुई। सामने हवन-कुड था, दोनो ओर विप्र- गण बैठे हुए थे, दीपक जल रहा था, कुल देवता की मूर्ति रखी हुई थी । वेद सत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम हुआ कि सचमुच देवता विराजमान हैं । अनि, वायु, दीपक, नक्षत्र सभी मुझे उस समय देवत्व की ज्योति से प्रदीप्त जान पड़ते थे। मुझे पहली बार आध्यात्मिक विकास का 'परिचय मिला। मैंने जब अग्नि के सामने मस्तक झुकाया, तो यह कोरी रस्म की पाबदी न थी, मै अनिदेव को अपने सम्मुख मूर्तिमान् , स्वर्गीय आभा से तेजोमय देख रही थी। अाखिर भावरे भी समाप्त हो गई, पर पतिदेव के दर्शन न हुए। अब अतिम आशा यह थी कि प्रात.काल जब पतिदेव कलेवा के लिए बुलाये जायेंगे, उस समय देखू गी । तब उनके सिर पर मौर न होगा, सखियो के साथ मैं भी जा बैठूगी और खूब जी भरकर देखू गी। पर क्या मालूम था कि विधि कुछ और ही कुचक्र रच रहा है। प्रातःकाल देखती हूँ, तो जनवासे के खेमे उखड़ रहे हैं। बात कुछ न थी। बरातियों के नाश्ते के लिए जो सामान भेजा गया था, वह काफी न था। शायद घी भी ख़राब था। मेरे पिताजी को तुम जानती ही हो । कभी किसी से दवे नहीं, जहाँ रहे शेर बनकर रहे । बोले-जाते हैं, जाने दो, मनाने की कोई ज़रूरत नहीं, कन्यापक्ष का धर्म है बरातियों का सत्कार करना, लेकिन सत्कार का यह अर्थ नहीं कि धमकी और रोब से काम लिया जाय, मानों किसी अफसर का पड़ाव हो। अगर वह अपने लड़के की शादी कर सकते हैं तो मैं भी अपनी लड़की की शादी कर सकता हूँ। बारात चली गई और मैं पति के दर्शन न कर सकी ! सारे शहर मे हम- चल मच गई। विरोधियों को हँसने का अवसर मिला। पिताजी ने बहुत