पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२६

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यो लखनऊ में दो सखिया २२७ दशा साफ-साफ बता दी होती, तो मै यहाँ श्रातीही ऐसी गरमी नहीं पड़ती कि आदमी पागल महा-हज़ारों रुपये पर क्यों पानी पडता। सबसे कठिन समस्या जीविका की है। कई विद्यालयों में आवेदन-पत्र भेज रखे हैं। जवाब का इतज़ार कर रहे हैं। शायद इस महीने के अंत तक कहीं जगह मिल जाय। पहले तीन-चार सौ मिलेगे। समझ में नहीं पाता , कैसे काम चलेगा। १५०) तो पापा मेरे कॉलेज का खर्च देते थे। अगर दस-पांच महीने जगह न मिली तो क्या करेगे, यह फिक और भी खाये डालती है। मुश्किल यही है कि विनोद मुझसे परदा रखते हैं। अगर हम दोनों बैठकर परामर्श कर लेते, तो सारी गुत्थियां सुनझ जाती । मगर शायद यह मुझे इस योग्य ही नहीं समझते। शायद इनका ख़याल है कि मै केवल रेशमो गुड़िया हूँ, जिसे माँति-भांति के अाभूपणों, सुगधों और रेशमी वस्त्रों से सजाना ही काफी है। थिएटर मे कोई नया तमाशा होनेवाला होता है, तो दौड़े हुए आकर मुझे ख़बर देते हैं । कहीं कोई जलसा हो, कोई खेल हो, कहों सैर करना हो, उसकी शुभ सचना मुझे अविलय दी जाती हैं, और बडी प्रसन्नता के साथ, मानों मैं रात-दिन विनोद और क्रोड़ा और विलास में मग्न रहना चाहती हूँ, मानो मेरे हृदय मे गभीर अंश है ही नहीं ! यह मेरा अपमान है, घोर अपमान, जिसे मैं अब नहीं सह सकती । मै अपने सपूर्ण अधिकार लेकर ही सतुष्ट हो सकती हूँ। बस इस वक्त इतना ही । बाक़ी फिर । अपने यहां का हाल-हवाल विस्तार से लिखना। मुझे अपने लिए जितनी चिंता है, उससे कम तुम्हारे लिए नहीं है। देखो, हम दोनों के डोंगे कहाँ लगते हैं। तुम अपनी स्वदेशी, पाँच हज़ार वर्षों की पुरानी, जजर नौका पर बैठी हो, मैं नये, द्रुतगामी मोटर-बोट पर। अवसर विज्ञान और उद्योग मेरे साथ हैं। लेकिन कोई दैवी विपत्ति श्रा जाय, तब भी इसी माटर-बोट पर डूबेंगी। साल में लाखो आदमी रेल के टक्करो से मर जाते हैं, पर कोई बैलगाड़ियों ,पर यात्रा नहीं करता। रेलों का विस्तार बढ़ता ही जाता है । बस, तुम्हारी पद्मा