पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२८

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दो सखियाँ २२९ कितनी उत्कंठा है, लिख नहीं सकता। तुम्हारी कल्पित मर्ति नित आँखों के सामने रहती है । पर कुल-मर्यादा का पालन करना मेरा कर्तव्य है। जब तक माता-पिता का रुख न पाऊँ, आ नहीं सकता। तुम्हारे वियोग मे चाहे प्राण ही निकल जाये, पर रिता की इच्छा की उपेक्षा नहीं कर सकता। हाँ, एक बात का दृढ़ निश्चय कर चुका हूँ-चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, कपूत कहलाऊँ, पिता के कोप का भागी बनें, घर छोड़ना पड़े, पर अपनी दूसरी शादी न करूंगा। मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ, मामला इतना तूल न खींचेगा। यह लोग थोड़े दिनों में नर्म पड़ जायेंगे और तब मै आऊँगा और अपनी हृदयेश्वरी को आँखों पर बिठाकर लाऊँगा।' बस, अब मैं संतुष्ट हूँ बहन, मुझे और कुछ न चाहिए । स्वामी मुझपर इतनी कृपा रखते हैं, इससे अधिक और वह क्या कर सकते हैं । प्रियतम, तुम्हारी चदा सदा तुम्हारी रहेगी, तुम्हारी इच्छा ही उसका कर्तव्य है । वह जब तक जिएगी, तुम्हारे पवित्र चरणों से लगी रहेगी, उसे बिसारना मत । बहन, आँखो मे आँसू भरे आते हैं, अब नहीं लिखा जाता, जवाब जल्द देना। तुम्हारी चदा दिल्ली १५-१२-२५ प्यारी बहन, तुझसे बार-बार क्षमा मांगती हूँ, पैरो पड़ती हूँ। मेरे पत्र न लिखने का कारण आलस्य न था, सैर-सपाटे की धुन न थी। रोज़ सोचती थी कि आज लिखू गी, पर कोई-न-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, कोई ऐसी बात हो जाती थी, कोई ऐसी बाधा आ खड़ी होती थी कि चित्त अशात हो जाता था और मुँह लपेटकर पड़ रहती थी। तुम मुझे अब देखो तो शायद पहचान न सको। मसूरी से दिल्ली आये एक महीना हो गया। यहाँ विनोद को तीन सौ रुपये की एक जगह मिल गई है। यह सारा महीना बाज़ार की खाक छानने में कटा । विनोद ने मुझे पूरी स्वाधीनता दे रखी है। मैं जो