पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

7 २३४ मानसरोवर यही ८ महीने मेरे जीवन की निधि है । - मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा जन्म फिर इसी गोद में हो और फिर इसी अतुल पितृस्नेह का आनंद भोगूं। संध्या समय-गाड़ी स्टेशन से चली। मैं ज़नाने कमरे में थी । और लोग दूसरे कमरे में थे। उस वक्त सहसा मुझे स्वामीजी को देखने की प्रबल इच्छा हुई। सांत्वना, सहानुभूति और श्राश्रय के लिए हृदय व्याकुल हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था जैसे कोई, कैदी काले पानी जा रहा हो । घटे-भर के बाद गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खिड़की से सिर निकालकर देखने लगी। उसी वक्त द्वार खुला और किसी ने कमरे में कदम रखा। उस कमरे में एक औरत न थी। मैने चौंककर पीछे देखा, तो एक पुरुष। मैंने तुरंत मुँह छिपा लिया और बोली, श्राप कौन हैं ! यह जनाना कमरा है । मरदाने कमरे मे जाइए। पुरुष ने खड़े-खड़े कहा-मैं तो इसी कमरे मे बैठू गा । मरदाने कमरे में भीड़ बहुत है। मैने रोष से कहा-नहीं, आप इसमें नहीं बैठ सकते । "मैं तो बढ़ेगा। 'श्रापको निकलना पड़ेगा। आप अभी चले जाइए, नहीं मैं अभी ज़जीर' खींच लूंगी। 'अरे साहब, मैं भी आदमी हूँ, कोई जानवर नहीं हूँ। इतनी जगह पड़ी हुई है। प्रापका इसमें क्या हरज है।" गाड़ी ने सीटी दी। मैं और भी घबड़ाकर बोली-'श्राप निकलते हैं या मैं-जंजीर खींचूँ ? पुरुष ने मुसकिराकर, कहा-आप तो बड़ी गुस्सावर मालूम होती हैं। एक गरीब श्रादमी पर श्रापको ज़रा भी दया नहीं आती ? गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोध और लज्जा के मुझे पसीना आ गया। फ़ौरन द्वार खोल दिया और बोली-अच्छी बात है, आप बैठिए, मैं ही - $ मैंने जाती हूँ। । बहन, सच कहती हूँ, मुझे उस वक्त लेश-मात्र भी भय न था । जानती थी, गिरते ही मर जाऊँगी, पर एक अजनबी के साथ अकेले बैठने से मर