पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३४

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दो सखियाँ २३५ - -आप कौन जाना अच्छा था। मैंने एक पैर लटकाया ही था कि 'उस पुरुष ने मेरी बाह पकड़ ली और अदर खींचता हुआ बोला | अब तक तो आपने मुझे काले पानी भेजने का सामान कर दिया था। यहाँ और कोई तो है नहीं, फिर आप इतना क्यों घबराती हैं । बैठिए, ज़रों हँसिए-बोलिए। अगले स्टेशन पर मैं उतर जाऊँगा, इतनी देर तक तो कृगकटाक्ष से वचित न कीजिए। आपको' देखकर दिल काबू से बाहर हुअा जाता है। क्यों एक गरीब का खून सिर पर लीजिएगा। मैंने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। सारी देह कांपने लगी। आँखों मे आँसू भर आये। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती, तो मैंने ज़रूर उसे निकाल लिया होता, और मरने-मारने को तैयार हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओंठ चबाने के सिवा और क्या करती। आखिर, झल्लाना व्यर्थ समझकर मैंने सावधान होने की चेष्टा करके कहा- हैं ! उसने उसी ढिठाई से कहा-तुम्हारे प्रेम का इच्छुक । 'श्राप तो मज़ाक करते हैं । सच बतलाइए।' 'सच बता रहा हूँ। तुम्हारा आशिक हूँ।' 'अगर आप मेरे आशिक हैं, तो कम से कम इतनी बात मानिए कि अगले स्टेशन पर उतर जाइए। मुझे बदनाम करके आप कुछ न पायेगे। मुझपर इतनी दया कीजिए।' मैंने हाथ जोड़कर यह बात कही। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी ने द्वार की ओर जाकर कहा-अगर आपका यही हुक्म है, तो लीजिए, जाता हूँ । याद रखिएगा। उसने द्वार खोल लिया और एक पाव आगे बढ़ाया। मुझे मालूम हुआ, वह नीचे कूदने जा रहा है। बहन, नहीं कह सकती उस वक्त मेरे दिल की क्या दशा हुई। मैंने बिजली की तरह लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और अपनी तरफ जोर से खींच लिया। उसने ग्लानि से भरे हुए स्वर में कहा-'क्यों खींच लिया। मैं तो चला। जा रहा था।" 'अगला स्टेशन आने दीजिए।