पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३५

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२३६ मानसरोवर 'जब श्राप भगा ही रही हैं, तो जितनी जल्द भाग जाऊँ उतना ही अच्छा। 'मैं यह कब कहती हूँ कि आप चलती गाड़ी से कूद पड़िए ।' 'अगर मुझपर इतनी दया है, तो एक बार जरा दर्शन ही दे दो।" 'अगर आपकी स्त्री से कोई दूसरा पुरुष ऐसी बातें करता, तो आपको . कैसी लगती पुरुष ने त्योरियां चढ़ाकर कहा.-'मैं उसका खून पी जाता।" मैने निःसंकोच होकर कहा-तो फिर आपके साथ मेरे पति क्या व्यवहार करेगे, यह भी आप समझते होंगे। 'तुम अपनी रक्षा आप ही कर सकती हो । प्रिये, तुम्हें पति की मदद की ज़रूरत ही नहीं। अब अाश्रो, मेरे गले से लग जाओ। मै ही तुम्हारा भाग्य- शाली स्वामी और सेवक हूँ।" मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मुंह से निकला 'अरे ! श्राप !! औरं मैं दूर हटकर खड़ी हो गई। एक हाथ लबा घूघट खींच लिया। मुँह से एक शब्द न निकला। स्वामी ने कहा-अब यह शर्म और परदा कैसा ? मैने कहा-आप बड़े छलिये हैं। इतनी देर तक मुझे रुलाने में क्या मज़ा आया? स्वामी-इतनी देर में मैंने तुम्हें जितना पहचान लिया उतना घर के अंदर शायद बरसों में भी न पहचान सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमुच गाड़ी से कूद पड़ती ? 'अवश्य ! 'बड़ी खैरियत हुई, मगर यह दिल्लगी बहुत दिनों याद रहेगी। मेरे स्वामी औसत कद के, सावले, चेचकरू, दुबले आदमी हैं। उनसे कहीं रूपवान् पुरुष मैंने देखे हैं, पर मेरा हृदय कितना उल्लसित हो रहा था। जितनी शानदमय, सतुष्टि का अनुभव कर रही थी, मैं बयान नहीं कर सकती। मैंने पूछा-गाड़ी कब तक पहुंचेगी ? -