पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४० मानसरोवर हुए ही, एक और जंजाल में फंस गई । मैं खूब जानती हूँ कि विनोद का डॉक्टर को बुलाना, या मेरे पास बैठे रहना केवल दिखावा था। उनके चेहरे पर ज़रा भी घबराहट न थी, चित्त ज़रा भी अशात न था। चंदा, मुझे क्षमा करना, मैं नहीं जानती कि ऐसे पुरुष के पाले पड़कर . तुम्हारी क्या दशा होती, पर मेरे लिए इस दशा में रहना असह्य है । मैं आगे जो वृत्तांत कहनेवाली हूँ, उसे सुनकर तुम नाक-भौं सिकोड़ोगी, मुझे कोसोगी, क्लकिनी कहोगी, पर जो चाहे कहो, मुझे परवा नहीं। श्राज चार दिन होते हैं, मैंने त्रिया-चरित्र का एक नया अभिनय किया । हम दोनों सिनेमा देखने गये थे। वहाँ मेरी बग़ल मे एक बगाली बाबू बैठे हुए थे। विनोद सिनेमा में इस तरह बैठते हैं मानों ध्यानावस्था में हों। न बोलना, न चालना। फिल्म इतना सुदर था, ऐष्टिग इतना सजीव कि मेरे मुंह से बार- बार प्रशंसा के शब्द निकल जाते थे । बगाली बाबू को भी बड़ा आनंद आ रहा था। हम दोनों उस फिल्म पर आलोचनाएँ करने लगे। वह फिल्म के भावों की इतनी रोचक व्याख्या करता था कि मन मुग्ध हो जाता था। फिल्म से ज्यादा मज़ा मुझे उसकी बातो में आ रहा था। बहन, सच कहती हूँ, शक्ल-सूरत मे वह विनोद के तलुनो की बराबरी भी नहीं कर सकता, पर केवल विनोद को जलाने के लिए मैं उससे मुसकिरा-मुसकिराकर बाते करने लगी। उसने समझा कोई शिकार फंस गया। अवकाश के समय वह बाहर जाने लगा; तो मैं भी उठ खड़ी हुई, पर विनोद अपनी जगह पर बैठे रहे। मैंने कहा-बाहर चलते हो, मेरी तो बैठे बैठे कमर दुख गई। विनोद बोले-हाँ-हाँ चलो, इधर-उधर टहल आये । मैंने लापरवाही से कहा-तुम्हारा जी न चाहे तो मत चलो, मैं मजबूर नहीं करती। विनोद फिर अपनी जगह पर बैठते हुए बोले-अच्छी बात है । मैं बाहर आई तो बंगाली बाबू ने पूछा- क्या आप यहीं की रहने- वाली हैं ? 'मेरे पति यहाँ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं ।' 'अच्छा ! वह श्रापके पति थे। अजीब आदमी हैं ।। 'पापको तो मैंने शायद यहां पहले ही देखा है।