पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४

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सद्गति २३ ताक़त आ गई थी। कोई श्राध घटे तक फिर कुल्हाड़ा चलाता रहा । फिर वेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया । इतने में वही गोंड़ पा गया । बोला-क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गांठ न फटेगी । नाहक हलाकान होते हो। दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा-अभी गाडी भर भूसा ढोना है भाई। n , गोंड़-कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं । जाके मांगते क्यों नहीं। दुखी-कैसी बात करते हो चिखुरी, बाम्हन की रोटी हमको पचेगी। गोंड़-पचने को पच जायगी, पहले मिले तो। मूछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया । जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी वेगार लेता है, तो थोड़ी- बहुत मजूरी दे देता है । यह उनसे भी बढ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं । दुखी-धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें, तो ग्राफत अा जाय । यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उसपर दया पाई। श्राकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई श्राध बटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई ; पर गांठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया- तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाय । दुखी सोचने लगा, बावा ने यह गांठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाडे नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कर तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक न एक चीज घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी कमा चिंता। चलूँ जव तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूंगा, बावा । आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल श्राकर फाड़ दूंगा। उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फर- लाग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर लाता तो काम जल्द खत्म रो जाता ; लेकिन फिर झौवे को उठाता कौन । अकेला भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोडा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं .