पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४०

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दो सखियाँ २४१ 'हो, मेरा मकान तो बंगाल में है। कंचनपूर के महाराजा साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी हूँ। महाराजा साहब वाइसराय से मिलने आये हैं।' 'तो अभी दो-चार दिन रहिएगा? 'जी हो, श्राशा तो करता हूँ। रहूँ तो साल भर रह जाऊँ। जाऊँ तो दूसरी गाड़ी से चला जाऊँ । हमारे महाराजा साहब का कुछ ठीक नहीं। यों. बड़े सजन और मिलनसार हैं । आपसे मिलकर बहुत खुश होंगे। यह बातें करते-करते हम रेस्ट्रा में पहुंच गये। बाबू ने चाय और टोस्ट लिया। मैंने सिर्फ चाय ली। तो इसी वक्त आपका महाराजा साहब से परिचय करा दू। आपको आश्चर्य होगा कि मुकुटधारियों में भी इतनी नम्रता और विनय हो सकती है । उनकी बातें सुनकर याप मुग्ध हो जायेंगी। मैंने आइने में अपनी सूरत देखकर कहा-जी नहीं, फिर किसी दिन पर रखिए । आपसे तो अक्सर मुलाकात होती रहेगी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ नहीं आई? युवक ने मुसकिराकर कहा-मै अभी क्वाँरा हूँ और शायद वारा ही रहूँ ? उत्सुक होकर पूछा-अच्छा! तो आप भी स्त्रियों से भागनेवाले जीवों में हैं । इतनी बातें तो हो गई और श्रापका नाम तक न पूछा। बाबू ने अपना नाम भुवनमोहन दास गुप्त बताया। मैंने अपना परि- चय दिया। 'जी नहीं, मैं उन अभागों में हूँ जो एक बार निराश होकर फिर उसकी परीक्षा नहीं करते । रूप की तो ससार में कभी नहीं, मगर रूप और गुण का मेल बहुत कम देखने में आता है। जिस रमणी से मेरा प्रम था वह आज एक बड़े वकील की पत्नी है । मैं ग़रीब था । इसकी सज़ा मुझे ऐसी मिली कि जीवन पर्यंत न भूलेगी। साल भर तक जिसकी उपासना की, 'जब उसने मुझे धन पर बलिदान कर दिया, तो अब और क्या प्राशा रखू।। मैंने हँसकर कहा-आपने बहुत जल्द हिम्मत हार दी। भुवन ने जमने द्वार की ओर ताकते हुए कहा-मैंने आज तक ऐसा वीर ही नहीं देखा जो रमणियों से परास्त न हुआ हो। ये हृदय पर चोट