पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४२

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1 दो सखियाँ २४३ और वासना से पृथक नहीं कर सकता । अब मेरा जीवन सुखमय हो जायगा। आपने मुझे आज जो शिक्षा दी है इसके लिए श्रापको धन्यवाद देता हूँ। यह कहते कहते भुवन सहसा चौक पड़े और बोले-योह ! मैं कितना बड़ा मूर्ख हूँ--सारा रहस्य समझ में श्रा गया, अब कोई बात छिपी नहीं है। श्रोह, मैने विमला के साथ घोर अन्याय किया । महान् अन्याय ! मै विलकुल अंधा हो गया था। विमला मुझे क्षमा करो। भुवन इसी तरह देर तक विलाप करते रहे । बार बार मुझे धन्यवाद देते थे और अपनी. मूर्खता पर पछताते थे । हमें इसकी सुध ही न रही कि कब घटी बजी, कब खेल शुरू हुआ । एकाएक विनोद कमरे मे आये। मैं चौक पड़ी। मैंने उनके मुख की ओर देखा, किसी भाव का पता न था । बोले-- तुम अभी यहीं हो पद्मा ! खेल शुरू हुए तो देर हुई ! मै चारों तरफ तुम्हें खोज रहा था। हकवकाकर उठ खड़ी हुई और बोली-खेल शुरू हो गया ? घटी की आवान तो सुनाई ही नहीं दी। भुवन भी उठे । हम फिर आकर तमाशा देखने लगे। विनोद ने मुझे अगर इस वक्त दो-चार लगनेवाली बाते कह दी होती, उनकी आँखों में क्रोध की झलक दिखाई देती, तो मेरा अशांत हृदय सॅभल जाता, मेरे मन को ढाढ़स होती । पर उनके अविचलित विश्वास ने मुझे और भी अशात कर दिया । बहन, मैं चाहती हूँ, वह मुझपर शासन करे, मैं उनकी कठोरता, उनकी उद्दडरा, उनकी बलिष्ठता का रूप देखना चाहती हूँ। उनके प्रम, प्रमोद, विश्वास का रूप देख चुकी । इससे मेरी आत्मा को तृप्ति नहीं होती। तुम उस पिता को क्या कहोगी जो अपने पुत्र को अच्छा खिलाये, अच्छा पहनाये, पर उसकी शिक्षा-दीक्षा की कुछ चिता न करे, वह जिस राह जाय उस राह जाने दे, जो कुछ करे वह करने दे । कभी उसे कड़ी आँख से देखे भी नहीं । ऐसा लड़का अवश्य ही आवारा हो जायगा। मेरा भी वही हाल हुआ जाता है । यह उदासीनता मेरे लिए असह्य है। इस भले आदमी ने यहाँ तक न पूछा कि भुवन कौन है । भुवन ने यही तो समझा होगा कि इसका पति इसकी बिलकुल परवा नहीं करता । विनोद खुद स्वाधीन रहना चाहते