पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४५

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मानसरोवर हमारी बुद्धि के विकास में जितनी रुकावट इस प्रथा ने डाली है उतनी और किसी भौतिक या दैविक क्राति से भी नहीं हुई। इसने मिथ्या श्रादर्शों को हमारे सामने रख दिया और आज तक हम उन्हीं पुरानी सड़ी हुई, लज्जा- जनक, पाशविक लकीरो को पीटते जाते हैं । व्रत केवल एक निरर्थक बंधन का नाम है । इतना महत्त्वपूर्ण नाम देकर हमने उस कैद को धार्मिक रूप दे दिया है। पुरुष क्यों चाहता है कि स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सर्वस्व समझे ? केवल इसलिए कि वह उसका भरण-पोषण करता है ? क्या स्त्री का कर्तव्य केवल पुरुष की सपत्ति के लिए वारिस पैदा करना है, उस सपत्ति के लिये जिस पर, हिंदू नीतिशास्त्र के अनुसार, पति के देहात के बाद उसका कोई अकिकार नहीं रहता ; समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा संगठन संपत्ति-रक्षा के आधार पर हुआ है। इसने संपत्ति को प्रधान और व्यकि को गौण कर दिया है। हमारे ही वीर्य से उत्पन्न सतान हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग करे, इस मनोभाव में कितनी स्वार्थांधता, कितना दासत्व छिपा हुआ है इसका कोई अनुमान नहीं कर सकता । इस कैद में जकड़ी हुई समाज की संतान यदि अाज घर में, देश में, ससार में, अपने क्रूर स्वार्थ के लिए रक्त की नदियां बहा रही है तो क्या आश्चर्य है । मैं इस वैवाहिक प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता हूँ। भुबन चकित हो गया। मैं खुद चकित हो गई। विनोद ने इस विषय पर मुझसे कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं यह तो जानती थी, वह साम्यवादी है, दो-एक बार इस विषय पर उनसे बहस भी कर चुकी हूँ, पर वैवाहिक प्रथा के वे इतने विरोधी हैं, यह मुझे न मालूम था। भुवन के चेहरे से ऐसा प्रकट होता था कि उन्होंने ऐसे दार्शनिक विचारों की गंध तक नहीं पाई । जरा देर के बाद बोले-~~प्रोफ़ेसर साहब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल दिया । आखिर आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा रखना चाहते हैं, या विवाह की आवश्यकता ही नहीं समझते ? जिस तरह पशु-पक्षी आपस में मिलते हैं वही हमें भी करना चाहिए ? विनोद ने तुरंत उत्तर दिया-बहुत कुछ। पशु-पक्षियों में सभी का मानसिक विकास एक-सा नहीं है । कुछ ऐसे हैं जो जोड़े के चुनाव में कोई