पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४७

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२४८ 'मानसरोवर मैंने मारे शर्म के सिर झुका लिया। क्या जवाब देती। विनोद की अंतिम बात ने मेरे हृदय पर कठोर श्राघात किया था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनोद ने केवल मुझे सुनाने के लिए विवाह का यह नया खंडन तैयार किया है। वह मुझसे पिंड छुड़ा लेना चाहते हैं । वह किसी रमणी की ताक में हैं, मुझसे उनका जी भर गया है । यह ख़याल करके मुझे बड़ा दुःख हुश्रा । मेरी आँखों से श्रासू बहने लगे। कदाचित् एकात में मै न रोती, पर भुवन के सामने मैं संयत न रह सकी। भुवन ने मुझे बहुत सांत्वना दी- 'श्राप व्यर्थ इतना शोक करती हैं । मिस्टर विनोद आपका मान न करे; पर संसार में कम-से ते-कम एक ऐसा व्यक्ति है जो आपके संकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता है। आप जैसी रमणी रत्न पाकर संसार में ऐसा कौन पुरुष है जो अपने भाग्य को धन्य न मानेगा। आप इसकी बिलकुल चिंता न करें। मुझे भुवन की यह बात बुरी माजूम हुई। क्रोध से मेरा मुख लाल हो गया। यह धूर्त मेरी इस दुर्बलता से लाभ उठाकर मेरा सर्वनाश करना चाहता है। अपने दुर्भाग्य पर बराबर रोना आता था। अभी विवाह हुए साल भी नहीं पूरा हुआ और मेरी यह दशा हो गई कि दूसरों को मुझे बह- काने और मुझ पर अपना जादू चलाने का साहस हो रहा है। जिस वक्त मैंने विनोद को देखा था मेरा हृदय कितना फूल उठा था। मैंने अपने हृदय को कितनी भक्ति से उनके चरणों पर अर्पण किया था। मगर क्या जानती थी कि इतनी जल्द मैं उनकी आँखों से गिर जाऊँगी, और मुझे परित्यक्ता समझकर शोहदे मुझ पर डोरे डालेगे । मैंने आंसू पोंछते हुए कहा-मैं आपसे क्षमा मांगती हूँ। मुझे जरा विश्राम लेने दीजिए। 'हो हां, श्राप आराम करे मैं बैठा देखता रहूँगा।' 'जी नहीं, अब श्राप कृपा करके जाइए । यो मुझे श्राराम न मिलेगा। 'अच्छी बात है, आप श्राराम कीजिए। मैं संध्या समय पाकर देख जाऊँगा। 'जी नहीं, आपको कष्ट करने की कोई जलरत नहीं है।' 1