पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५

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२४ मानसरोवर भूसा खत्म हुश्रा । पडितजी की नींद भी खुली । मुंह-हाथ धोया, पान खाया, और बाहर निकले । देखा, तो दुखी झौवे पर सिर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले--अरे दुखिया, तू सो रहा है ! लकड़ी तो अभी ज्यो की त्यों पड़ी हुई है । इतनी देर तू करता क्या रहा ! मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी। उसपर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल । तुझसे ज़रा- सी लकड़ी भी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना । इसी से कहा है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली। दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई । जो बाते पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गई । पेट पीठ मे फंसा जाता था, अाज सवेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला । उठना भी पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था ; पर दिल को समझाकर उठा। पडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारे, तो फिर सत्यानाश ही हो जाय । जभी तो संसार मे इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है । जिसे चाहे बिगाड़ दे। पडतजी गांठ के पास आकर खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे-हाँ, मार कसके, और मार- कसके मार-अबे ज़ोर से मार- तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है - लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है-हाँ-बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में! दुखी अपने होश में न था । न जाने कौन-सी गुप्त शक्ति उसके हाथों को चला रही थी । वह थकन, भूख, कमजोरी सव मानो भाग गई । उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आध घटे तक वह इसी तरह उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई- और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी । इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया । पंडितजी ने पुकारा-उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियां हो जायँ । दुखी न उठा । अब उसे दिक करना उचित न समझा। पंडितजी ने भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पडिताई