पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२५८ मानसरोवर निद्रा समाई हुई थी। प्रातः उठी, तो विनोद को न पाया। मैं उनसे पहले उठती हूँ, वह पड़े सोते रहते हैं। पर आज वह पलॅग पर न थे। शाल भी न था। मैंने समझा शायद अपने कमरे में चले गये हो । स्नान-गृह में चली गई। आध घटे में बाहर आई, फिर भी वह न दिखाई दिये। उनके कमरे में गई, वहाँ भी न थे। आश्चर्य हुआ, इतने सबेरे कहाँ चले गये। सहसा खू टी पर आँख पड़ी-कपड़े न थे। किसी से मिलने चले गये ! या स्नान के पहले सैर करने की ठानी। कम-से-कम मुझसे कह तो देते, सशय मे तो जी न पड़ता। क्रोध आया--मुझे लौंडी समझते हैं... हाजिरी का समय आया। बैरा मेज़ पर चाय रख गया। विनोद के इंतज़ार में चाय ठंडी हो गई । मैं बार-बार मुझलाती थी, कभी भीतर जाती कभी बाहर पाती, ठान ली थी कि आज ज्योंही महाशय आयेगे, ऐसा लताडूगी कि वह भी याद करे। कह दूँगी, श्राप अपना घर लीजिए, आपको अपना घर मुबारक रहे, मैं अपने घर चली जाऊँगी। इस तरह तो रोटियाँ वहा भी मिल जायेंगी। जाड़े के नौ बजने में देर ही क्या लगती है। विनोद का अभी पता नहीं। झल्लाई हुई उनके कमरे मे गई कि एक पत्र लिखकर मेज़ पर रख दूं -साफ़-साफ लिख दूं कि इस तरह अगर रहना है, तो आप रहिए, मैं नहीं रह सकती। मै जितना ही तरह देती जाती हूँ, उतना ही.तुम मुझे चिढ़ाते हो। बहन, उस क्रोध में सतप्त भावो की नदी-सी मन में उमड़ रही थी। अगर लिखने बैठती, तो पन्नो के पन्ने लिख डालती । लेकिन अाह ! मैं तो भाग जाने की धमकी ही दे रही थी, वह पहले ही भाग चुके थे। ज्यों ही मेज़ पर बैठी, मुझे पैड में उनका एक पत्र मिला । मैंने तुरत उस पत्र को निकाल लिया और सरसरी निगाह से पढ़ा--मेरे हाथ कांपने लगे, पाव थरथराने लगे, जान पड़ा कमरा हिल रहा है, एक ठडी; लबी, हृदय को चीरनेवाली आह खींचकर मैं कौच पर गिर पड़ी। पत्र यह था-- "प्रिये, नौ महीने हुए, जब मुझे पहली बार तुम्हारे दर्शनों का सौभाग्य हुआ था। उस वक्त मैने अपने को धन्य माना था । आज तुमसे वियोग का दुर्भाग्य हो रहा है, फिर भी मैं अपने को धन्य मानता हूँ। मुझे जाने का लेश-मात्र भी दुःख नहीं है, क्योंकि मैं जानता हूँ तुम खुश होगी। जब तुम ,