पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५८

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दो सखियाँ २५९ मेरे साथ सुखी नहीं रह सकतीं, तो मैं ज़बरदस्ती क्यो पड़ा रहूँ। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि हम और तुम अलग हो जायें । मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहूँगा तुभ भी जैसी हो, वैसी ही रहोगी। फिर सुखी जीवन की सभावना कहाँ ? मैं विवाह को आत्मविकास का साधन समझता हूँ । स्त्री-पुरुष के सवध का अगर कोई अर्थ है, तो यही है, वर्ना मैं विवाह की कोई जरूरत नहीं समझता । मानव-सतात विना विवाह के भी जीवित रहेगी और शायद इससे अच्छे रूप में। वासना भी बिना विवाह के पूरी हो सकती है, घर के प्रबंध के लिए विवाह करने की कोई जरूरत नहीं। जीविका एक बहुत ही गौण प्रश्न है, जिसे ईश्वर ने दो हाथ दिये, वह कभी भूखा नहीं रह सकता। विवाह का उद्देश्य यही और केवल यही है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे की आत्मोन्नति में सहायक हो । जहाँ अनुराग हो, वहीं विवाह है और अनुराग ही आत्मो- न्नति का मुख्य साधन है । जब अनुराग न रहा, तो विवाह भी न रहा, अनु- राग के विना विवाह का कोई अर्थ ही नहीं। जिस वक्त मैने तुम्हे पहली बार देखा था, तुम मुझे अनुराग की सजीव मूर्ति सी नजर आई थीं। तुममे सौदर्य था, शिक्षा थी, प्रम था, स्फूर्ति थी, उमग थी। मैं मुग्ध हो गया। उस वक्त मेरी अंधी आँखों को यह न सूझा कि जहाँ तुममें इतने गुण थे, वहाँ चंचलता भी थी, जो इन सब गुणों पर पर्दा डाल देती है। तुम चचल हो, ग़जब की चंचल, जो उस वक्त मुझे न सूझा था । तुम ठीक वैसी ही हो जैसी तुम्हारी दूसरी बहने होती हैं, न कम, न ज्यादा। मैंने तुमको स्वाधीन बनाना चाहा था, क्योंकि मेरी समझ में अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँचने के लिए इसी की सबसे अधिक ज़रूरत है । संसार-भर मे पुरुषों के विरुद्ध क्यों इतना शोर मचा हुआ है ? इसी लिए कि हमने औरतों की प्राज़ादी छीन ली है और उन्हें अपनी इच्छाओं की लौडी बना रखा है। मैने तुम्हें स्वाधीन कर दिया। मैं तुम्हारे ऊपर अपना कोई अधिकार नहीं मानता । तुम अपनी स्वामिनी हो। मैं जब तक समझता था, तुम मेरे साथ स्वेच्छा से रहती हो, मुझे कोई चिंता न थी। अब मुझे मालूम हो रहा है, तुम स्वेच्छा से नही, सकोच या भय या वधन के कारण रहती हो । -दो ही चार दिन पहले मुझपर यह बात खुली है। इसलिए अब मैं तुम्हारे