पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दो सखियाँ २६५ गये होंगे, मगर अभी वह न आये हो और तुम रो-रोकर अपनी आँखें फोड़े डालती हो, तो मुझे जरा भी दुःख न होगा। तुमने उनके साथ जो अन्याय किया है, उसका यही दड है । मुझे तुमसे जरा भी सहानुभूति नहीं है । तुम गृहिणी होकर वह कुटिल क्रोडा करने चली थीं, जो प्रम का सौदा करनेवाली स्त्रियों को ही शोभा देती है। मैं तो जब खुश होती कि विनोद ने तुम्हारा गला घोट दिया होता और भुवन के कुसस्कारों को सदा के लिए शात कर देते । तुम चाहे मुझसे रूठ ही क्यों न जाओ, पर मैं इतना ज़रूर कहूंगी कि तुम विनोद के योग्य नहीं हो । शायद तुम उस पति से प्रसन्न रहतीं, जो प्रम के नये नये स्वांग भरकर तुम्हें जलाया करता । शायद तुमने अँगरेजी किताबों में पढ़ा होगा कि स्त्रियाँ छैले रसिकों पर हो जान देती हैं और पढ़कर तुम्हारा सिर फिर गया है । तुम्हें नित्य कोई सनसनी चाहिए, अन्यथा तुम्हारा जीवन शुष्क हो जायगा। तुम भारत की पतिपरायण रमणी नहीं, योरप की आमोद-प्रिय युवती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है। तुमने अब तक रूप को ही नाकर्षण का मूल समझ रखा है, रूप मे आकर्षण है, मानती हूँ। लेकिन उस आकर्षण का नाम मोह है, वह स्थायी नहीं, केवल धोखे की टट्टी है । प्रम का एक ही मून मत्र है, और वह सेवा है। यह मत समझो कि जो पुरुष तुम्हारे ऊपर भ्रमर की भांति मॅडलाया करता है, वह तुमसे प्रम करता है। उसकी यह रूपासक्ति बहुत दिनों तक नहीं रहेगा। प्रेम का अंकर रूप मे है, पर उसको पल्लवित और पुष्पित करना सेवा ही का काम है। मुके विश्वास नहीं आता कि विनोद को बाहर से थके-मादे, पसीने में तर अाया देख- कर तुमने कभी पखा झला होगा। शायद टेबुन-फैन लगाने की बात भी तुम्हें न सूझी होगी। सच कहना, मेरा अनुमान ठीक है या नहीं। बतलायो, तुमने कभी उनके पैरों मे चप्पी की है 2 कभी उनके सिर में तेल डाला है ! तुम कहोगी, यह खिदमतगारों का काम है, लेडियां यह मरज़ नहीं पालतीं । तुमने उस श्रानद का अनुभव ही नहीं किया। तुम विनोद को अपने अधिकार में रखना चाहती हो, मगर उसका साधन नहीं करती । विलासिनी मनोरंजन कर सकती है, चिरसंगिनी नहीं बन सकती। पुरुष के गले से लिपटी हुई भी वह उससे कोसों दूर रहती है। मानती हूँ, रूपमोह मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन ।