पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६६

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दो सखियाँ २६७ इतना सुनना था कि अम्मा के सिर पर भूत सा सवार हो गया । अानद बाबू भी बीच-बीच में फुलझडिया छोड़ते रहे। और मैं अपने कमरे मे बैठी रोती रही कि कहीं-से-कहाँ मैंने किताब मांगी। न अम्माजी ही ने भोजन किया, न आनद बाबू ने ही। और मेरा तो बार-बार यही जी चाहता था कि जहर खा लू । रात को जब अम्माजी लेटी, तो मैं अपने नियम के अनु- सार उनके पैर दबाने गई । मुझे देखते ही उन्होंने दुतकार दिया, लेकिन मैंने उनके पांव पकड़ लिये। मै पैताने की ओर तो थी ही। अम्माजी ने ज पैर से मुझे ढकेला, तो मैं चारपाई के नीचे गिर पड़ी। नमीन पर कई टोकरिया पड़ी हुई थीं। मैं उन कटोरियों पर गिरी, तो पीठ और कमर मे बड़ी चोट आई । मैं चिल्लाना न चाहती थी, मगर न जाने कैसे मेरे मुँह से चीख निकल गई । आनद बाबू अपने कमरे मे आ गये थे, मेरी चीख सुनकर दौड़ पड़े और अम्माजी के द्वार पर आकर बोले- क्या उसे मारे डालती हो अम्मा । अपराधी तो मैं हूँ, उसकी जान क्यो ले रही हो ! यह कहते हुए वह कमरे में घुस आये और मेरा हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती खींच ले गये । मैंने बहुत चाहा कि अपना हाथ छुड़ा लूँ, पर श्रानद ने न छोड़ा। वास्तव में इस समय उनका हम लोगों के बीच मे कूद पड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था । वह न आ जाते, तो मैंने रो-धोकर अम्माजी को मना लिया होता। मेरे गिर पड़ने से उनका क्रोध कुछ शात हो चला था। आनद का पा जाना गजव हो गया । अम्माजी कमरे के बाहर निकल आई और मुंह चिढ़ाकर बोलीं-हो, देखो मरहम-पट्टी कर दो, कहीं कुछ टूट-फूट न गया हो ? आनद ने आंगन में रुककर कहा -क्या तुम चाहती हो कि तुम किसी को मार डालो और मै न बोलू? 'हाँ, मैं तो डायन हूँ, आदमियों को मार डालना ही तो मेरा काम है ताज्जुब है कि मैंने तुम्हें क्यों न मार डाला। 'तो पछतावा क्यों होरहा है, धेले की संखिया में तो काम चलता है।' 'अगर तुम्हें इस तरह औरत को सिर चढ़ाकर रखना है, तो कहीं और ले जाकर रखो। इस घर में तुम्हारा निबाह अब न होगा।' 'मैं खुद इसी फिक्र में हूँ, तुम्हारे कहने की ज़रूरत नहीं।'