पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६७

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२६८ मानसरोवर 'मैं भी समझ लूगी कि मैंने लड़का ही नहीं जाना ।' 'मै भी समझ लूगा कि मेरी माता मर गई ।' मैं अानद का हाथ पकड़कर ज़ोर से खींच रही थी कि उन्हें वहां से हटा ले जाऊँ, मगर वह बार-बार मेरा हाथ झटक देते थे । आख़िर जब अम्माजी अपने कमरे में चली गई, तो वह अपने कमरे में आये, और सिर थामकर बैठ गये। मैंने कहा-यह तुम्हें क्या सूझी ? आनद ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा-अम्मा ने अाज नोटिस दे दिया। 'तुम खुद ही उलझ पड़े, वह बेचारी तो कुछ बोली ही नहीं ।' 'मै ही उलझ पड़ा! 'और क्या । मैंने तो तुमसे फरियाद न की थी।' 'पकड़ न लाता, तो अम्मा ने तुम्हे- अधमरा कर दिया होता । तुम उनका क्रोध नहीं जानतीं।' 'यह तुम्हारा भ्रम है । उन्होंने मुझे मारा नहीं, अपना पैर छुड़ा रही थीं। मैं पट्टी पर बैठी थी , जरा सा धक्का खाकर गिर पड़ी। अम्माजी मुझे उठाने ही जा रही थीं कि तुम पहुँच गये।' 'नानी के आगे ननिहाल का बखान न करो, मैं खूब हूँ। मैं कल ही दूसरा घर ले लूगा, यह मेरा निश्चय है । कहीं-न-कहीं नौकरी मिल ही जायगी। यह लोग समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर पड़ा हुश्रा हूँ । इसी से यह 'मिजाज हैं !! मैं जितना ही उनको समझाती थी, उतना ही वह और बफरते थे। आख़िर मैंने झु झलाकर कहा-तो तुम अकेले जाकर दुसरे घर मे रहो । मैं न ज.ऊँगी। मुझे यहीं पड़ी रहने दो। अानंद ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा-यही लात खाना अच्छा लगता है ? 'हाँ, मुझे यही अा लगता है।' अम्मा को जानता