पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७५

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२७६ मानसरोवर किसी तरह नहीं। मैने या तो अपने प्राण दे दिये होते, या फिर उस सास का मुंह न देखती । तुम्हारा सीधापन, तुम्हारी सइनशीलता, तुम्हारी सास- भक्ति तुम्हें मुबारक हो। मैं तो तुरत आनद के साथ चली जाती और चाहे भीख ही क्यों न मांगनी पड़ती, पर उस घर में कदम न रखतो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया ही नहीं आती, क्रोध भी आता है, इसलिए कि तुममे स्वाभिमान नहीं है। तुम जैसी स्त्रियों ने सासों और पुरुषों का मिजाज आसमान पर चढ़ा दिया है। 'जहन्नुम में जाय ऐसा घर-जहाँ अपनी इज्जत नहीं। मैं पतिप्रम भी इन दामों न लू। तुम्हें उन्नसवीं सदी में जन्म लेना चाहिए था। उस वक्त तुम्हारे गुणों की प्रशसा होती। इस स्वाधीनता और नारी- स्वत्व के नवयुग में तुम केवल प्राचीन इतिहास हो। यह सीता और दमयती का युग नहीं । पुरुषों ने बहुत दिनों राज्य किया। अब स्त्री-जाति का राज्य होगा। मगर अब तुम्हें अधिक न को। गी । अब मेरा हाल सुनो । मैंने सोचा था, पत्रों मे अपनी बीमारी का समाचार छपवा दूंगी। लेकिन फिर ख़याल आया, यह समाचार छपते ही मित्रों का तांता लग जायेगा। कोई मिजाज़ पूछने आयेगा, कोई देखने आयेगा। फिर मैं कोई रानी तो हूँ नहीं, जिसकी बीमारी का बुलेटिन रोजाना छापा जाय । न जाने लोगों के दिल मे कैसे-कैसे विचार उत्पन्न हो । यह सोचकर मैने पत्र में छपवाने का विचार छोड़ दिया । दिन भर मेरे चित्त की क्या दशा रही, लिख' नहीं सकती। कभी मन में आता, जहर खा लू; कभी सोचती कही उड़ जाऊँ । विनोद के संबंध में भांति-भांति की शंकाएँ होने लगी। अब मुझे ऐसी कितनी ही बाते याद आने लगी, जब मैने विनोद के प्रति उदासीनता का भाव दिखाया था। मैं उनसे सब कुछ लेना चाहती थी, देना कुछ न चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह आठों पहर भ्रमर की भांति मुझपर मँडराते रहें, पतंग की भांति मुझे घेरे रहे। उन्हें किताबो और पत्रों में मग्न बैठे देखकर मुझे मुझलाहट होने लगती थी। मेरा अधिकाश लमय अपने ही बनाव-सिंगार में कटता था, उनके विषय मे मुझे कोई चिंता ही न होती थी। अब मुझे मालूम हुआ कि सेवा का महत्त्व रूप से कहीं अधिक है । रूप मन को मुग्ध कर सकता है, पर आत्मा को श्रानद पहुँचानेवाली कोई दूसरी ही वस्तु है । 1 ,