पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८१

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२८२ मानसरोवर 'तुम समझती हो, कि मुझे विनोद से प्रेमनाही है." 'नहीं, विनोद से तुम्हें जिनता प्रेम है, उससे अधिक अपने आपसे है । कम से कम दस दिन पहले यही बात थी। अन्यथा यह नौबत ही क्यों आती। विनोद यहां से सीधे मेरे पास गये और दो-तीन दिन रहकर बबई चले गये ? मैंने बहुत पूछा, पर कुछ बतलाया नहीं। वहां उन्होंने एक दिन विष खा लिया। मेरे चेहरे का रग उड़ गया। 'बबई पहुंचते ही उन्होंने मेरे पास एक ख़त लिखा था। उसमें यहां की सारी बातें लिखी थीं और अत मे लिखा था इस जीवन से तंग श्रा गया हूँ, अब मेरे लिए मौत के सिवा और कोई उपाय नहीं है।' मैंने एक ठडी सांस ली। 'मैं यह पत्र पाकर घबरा गई और उसी वक्त बंबई रवाना हो गई। जब वहां पहुंची, तो विनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा नहीं थी। मेरे एक सबंधी वहां डॉक्टरी करते हैं। उन्हें लाकर दिखाया, तो वह वोले- इन्होने जहर खा लिया है। तुरंत दवा दी गई। तीन दिन तक डॉक्टर साहब ने दिन को दिन और रात को रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के लिए विनोद के पास से न हटी। बारे तीसरे दिन इनकी श्राखे खुली । तुम्हारा पहला तार मुझे मिला था, पर उसका जवाब देने की किमे फुरसत थी । तीन दिन और बबई रहना पड़ा। विनोद इतने कमज़ोर हो गये थे कि इतना लबा सफ़र करना उनके लिए असंभव था। चौथे दिन मैंने जब उनसे यहाँ पाने का प्रस्ताव किया, तो बोले-मैं अब वहाँ न जाऊँगा। जब मैंने बहुत समझाया, तब इस शर्त पर राजी हुए कि मैं पहले पाकर यहाँ की परिस्थिति देख जाऊँ। मेरे मुंह से निकला-'हा। ईश्वर, मैं ऐसी अभागिनी हूँ।' अभागिनी नहीं हो बहन, केवल तुमने विनोद को समझा न था। वह तो चाहते थे कि मैं अकेली पाऊँ, पर मैंने उन्हें इस दशा मे वहाँ छोडना उचित न समझा। परसों हम दोनो वहां से चले ! यहाँ पहुँचकर विनोद तो वेटिंगरूम में ठहर गये, मैं पता पूछती हुई भुवन के पास पहुंची। भुवन को