पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८२

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दो सखियाँ २८३ - , मैंने इतना फटकारा कि वह रो पड़ा। उसने मुझमे यहाँ तक कह डाला कि तुमने उसे बुरी तरह दुत्कार दिया है। आँखों का बुरा आदमी है, पर दिल का बुरा नहीं। उधर से जब मुझे सतोष हो गया और रास्ते में तुमसे भेंट हो जाने पर रहा सहा भ्रम भी दूर हो गया, तो मैं विनोद को तुम्हारे पास लाई । अब तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौपती हूँ। मुझे आशा है, इस दुर्घटना ने तुम्हें इतना सचेत कर दिया होगा कि फिर ऐसी नौबत न आयेगी। आत्मसमर्पण करना सीखो। भूल जाओ कि तुम सुंदरी हो ; आनदमय जीवन का यही मूल मत्र है । मैं डीग नहीं मारती, लेकिन चाहूँ तो आज विनोद को तुमसे छीन सकती हूँ। लेकिन रूप मे, मैं तुम्हारे तलुओं के बराबर भी नहीं। रूप के साथ अगर तुम सेवा-भाव धारण कर सको, तो तुम अजेय हो जाओगी 'मैं कुसुम के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली-बहन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसके लिए मरते दम तक तुम्हारी ऋणी रहूँगी। तुमने न सहायता की होती, तो आज न जाने मेरी क्या गति होती ।' बहन, कुसुम कल चली जायगी। मुझे तो अब वह देवी-सी दोखती है। जी चाहता है, उसके चरण धो-धोकर पीऊँ। उसके हाथों मुझे विनोद ही नहीं मिले हैं, सेवा का सच्चा आदर्श और स्त्री का सच्चा कर्तव्यज्ञान भी मिला है | आज से मेरे जीवन का नवयुग प्रारभ होता है, जिसमें भोग और विलास की नहीं, सहृदयता और आत्मीयता की प्रधानता होगी। तुम्हारी पद्मा