पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८७

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२८८ मानसरोवर एक साला बिछावन बिछा रहा था, दूसरा घोती लिये खड़ा था कि मैं पाजामा उतारूँ। यह सब इसी ठाट की करामात थी। रात को देवीजी ने पूछा-'सब रुपये उड़ा आये कि कुछ बचा भी है ?? मेरा सारा प्रमोत्साह शिथिल पड़ गया, न क्षेम, न कुशल, न प्रम की कोई बातचीत, बस, हाय रुपये | हाय रुपये !! जी में आया कि इसी वक्त उठकर चल दूं। लेकिन ज़ब्ज कर गया । बोला-'मेरी श्रामदनी जो कुछ है, वह तो तुम्हें मालूम है।' क्या जानू, तुम्हारी क्या आमदनी है। कमाते होंगे अपने लिए, मेरे लिए क्या करते हो ? तुम्हें तो भगवान् ने औरत बनाया होता तो अच्छा होता । रात-दिन कंघी-चोटी किया करते । तुम नाहक मर्द बने । अपने शौक़. सिंगार से बचत ही नहीं, दूसरो की फिक्र तुम क्या करोगे ? मैंने मुझलाकर कहा-'क्या तुम्हारी यही इच्छा है कि इसी वक्त चला जाऊँ ?' देवीजी ने भी त्योरिया चढ़ाकर कहा-'चले क्यों नहीं जाते, तो तुम्हे बुलाने न गई थी या मेरे लिए कोई रोकड़ लाये हो ।' मैने चितित स्वर मे कहा-'तुम्हारी निगाह में प्रम का कोई मूल्य नहीं। जो कुछ है, वह रोकड़ ही है । देवीजी ने त्योरियाँ चढ़ाये हुए ही कहा-'प्रेम अपने आपसे करते होंगे •मुझमे तो नहीं करते ।। 'तुम्हें पहले तो यह शिकायत कभी न थी।' 'इससे यह तो तुमको मालूम ही हो गया कि मैं रोकड़ की परवा नहीं करती, लेकिन देखती हूँ कि ज्यों-ज्यों तुम्हारी दशा सुधर रही है, तुम्हारा हृदय भी बदल रहा है। इससे तो यही अच्छा था कि तुम्हारी वही दशा बनी रहती। तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ, फटे चीथड़े पहन कर दिन काट सकती हूँ; लेकिन यह नहीं हो सकता कि तुम चैन करो और मै मैके में पड़ी भाग्य को रोया करूँ। मेरा प्रेम उतना सहनशील नहीं है।' सालो और नौकरी ने मेरा जो आदर-सम्मान किया था, उसे देखकर मैं अपने ठाट पर फूला न समाया था । अब यहाँ मेरी जो अवहेलना हो रही थी उसे देखकर पछता रहा था कि पथ हो यह स्वांग भरा। अगर साधारण मैं