पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८८

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मॉगे की घड़ी २८९ कपड़े पहने, रोनी सूरत बनाये आता, तो बाहरवाले चाहे अनादर ही करते, लेकिन देवीजी तो प्रसन्न रहतीं, पर अब तो भूल हो गई थी। देवीजी की बातों पर मैने गौर किया, तो मुझे उनसे सहानुभूति हो गई । यदि देवीजी पुरुष होती और मैं उनकी स्त्री, तो क्या मुझे यह किसी तरह भी सह्य होता कि वह तो छैला बनी घूमे और मैं पिंजरे में बद दाने और पानी को तरसू। चाहिए यह था कि देवीजी से सारा रहस्य कह सुनाता, पर आत्मगोरव ने इसे किसी तरह स्वीकार न किया । स्वांग भरना सर्वथा अनुचित था, लेकिन परदा खोलना तो भीषण पार था। आखिर मैंने फिर उसी खुशामद से काम लेने का निश्चय किया जिसने इतने कठिन अवसरों पर मेरा साथ दिया था। प्रम- पुलकित कठ से बोला--'प्रिये । सच कहता हूँ, मेरी दशा अब भी वही है,, लेकिन तुम्हारे दर्शनों की इच्छा इतनी बलवती हो गई थी कि उधार कपड़े लिये । यहाँ तक कि अभी सिलाई भी नहीं दी। फटे हालों बाते सकोच होता था कि सबसे पहले तुमको दुःख होगा और तुम्हारे घरवाले भी दुःखी होंगे अपनी दशा जो कुछ है, वह तो है ही, उसका ढिंढोरा पीटना, तो और भी लज्जा की बात है।' देवीजी ने कुछ शात होकर कहा-'तो उधार लिया । 'और नकद कहाँ धरा था । 'घड़ी भी उधार ली। 'हाँ, एक जान-पहचान की दुकान से ले ली।' 'कितने की है " बाहर किसी ने पूछा होता, तो मैंने ५००) से कौड़ी कम न बताया होता, लेकिन यहाँ मैने २५) बताया । 'तब तो बड़ी सस्ती मिल गई।' 'और नहीं मैं फंसता ही क्यों ?? 'इसे मुझे देते जाना। ऐसा जान पड़ा, मेरे शरीर में रक्त ही नहीं रहा । सारे अवयव निस्पंद हो गये । इनकार करता हूँ, तो नहीं बचता, स्वीकार करता हूं, तो कभी नहीं बचता । आज प्रातःकाल यह घड़ी मँगनी पाकर मैं फूला न समाया था। इस