पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९०

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मॉगे की घड़ी २९१ आखिर वही हुआ, जिसकी मुझे शंका थी। मेरे पास वह घड़ी तीन साल रही, एक दिन भी इधर-उधर न हुई । तुमने तीन दिन में वारा-न्यारा कर दिया। आखिर कहाँ गये थे ? मैं तो डर रहा था कि दानू बाबू न जाने कितनी धुडकियां सुनायेगे। उनकी यह क्षमाशीलता देखकर मेरी जान-मे-जान आई। बोला-'जरा ससु- राल चला गया था । 'तो भाभी को लिवा लाये ।' 'जी, भाभी को लिवा लाता { अपना गुज़र होता ही नहीं, भाभी को लिवा लाता।' 'आखिर तुम इतना कमाते हो, वह क्या करते हो ?' ‘कमाता क्या हूं अपना सिर । ३०) महीने का नौकर हुँ।' 'तो तीसो खर्च कर डालते हो? 'क्या ३०) मेरे लिए बहुत हैं ? 'जब तुम्हारी कुल आमदनी ३०) है, तो यह सब अपने ऊपर खर्च करने का तुम्हें अधिकार नहीं है। बीबी कब तक मैके में पड़ी रहेगी? 'जब तक और तरक्की नहीं होती, तब तक मजबूरी है ! किस बिरते पर बुनाऊँ ? 'और तरक्की दो-चार साल न हो तो? 'यह तो ईश्वर ही ने कहा है। इधर तो ऐसी अाशा नहीं है।' 'शाबाश! तब तो तुम्हारी पीठ ठोकनी चाहिए, और कुछ काम क्यों नहीं करते। सुबह को क्या करते हो ? 'सारा वक्त नहाने-धोने, खाने-पीने में निकल जाता है। फिर दोस्तों से मिलना-जुलना भी तो है।" 'तो भाई, तुम्हारा रोग असाध्य है। ऐसे आदमो के साथ मुझे लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं हो सकती, आपको मालूम है, मेरी घड़ी ५००) की थी। सारे रुपये श्रापको देने होंगे। आप अपने लिए १५) महीना मेरे हवाले रखते जाइए। ३०) महीने या ढाई साल में मेरे रुपये पट जाये तो खूब जी खोलकर दोस्तों से मिलिएगा। समझ गये न । मैंने ५०) छोड दिये हैं, इससे अधिक रियायत नहीं कर सकता।' १५) में मेरा गुजर कैसे होगा?