पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९३

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२९४ मानसरोवर लिए और सभी चीजें त्याज्य थीं, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे जीवन में विशेष रुचि हो गई थी। मैं जिंदगी से वेज़ार, मौत के मुंह का शिकार बनने का इच्छुक न था। मुझे ऐसा आभास होता था कि मै जीवन में कुछ कर सकता हूँ। एक मित्र ने एक दिन मुझसे पान खाने के लिए बड़ा आग्रह किया, पर मैंने न खाया । तब वह बोले-'तुमने तो यार पान छोड़कर कमाल कर दिया। मैं अनुमान ही न कर सकता था कि तुम पान छोड़ दोगे। हमें भी कोई तरकीब बताओ। मैंने मुसकिराकर कहा-'इसकी तरकीब यही है कि पान न खायो ।' 'जी तो नहीं मानता। 'आप ही मान जायगा।' 'बिना सिगरेट पिये, तो मेरा पेट फूलने लगता है।' 'फूलने दो, आप पिचक जायगा ।' 'अच्छा तो लो, आज से मैंने पान और सिगरेट छोड़ा,' 'तुम क्या छोड़ोगे । तुम नहीं छोड़ सकते ।' मैंने उनको उत्तेजित करने के लिए वह शका की थी। इसका यथेष्ट प्रभाव पड़ा। वह दृढ़ता से बोले-'तुम यदि छोड़ सकते हो, तो मैं भी छोड़ सकता हूँ। मै तुमसे किसी बात में कम नहीं हूँ ।' 'अच्छी बात है, देखू गा। 'देख लेना।। मैंने इन्हें आज तक-पान या सिगरेट का सेवन करते नहीं देखा था। पांचवे महीने में जब मैं रुपये लेकर दानू बाबू के पास गया, तो सच मानो, वह टूटकर मेरे गले से लिपट गये। बोले -हो यार, तुम धुन के पक्के । मगर सच कहना, मुझे मन में कोसते तो नहीं ? मैंने हँसकर कहा-'अब तो नहीं कोसता, मगर पहले ज़रूर कोसता था।' 'अब क्यों इतनी कृपा करने लगे ? इसलिए कि मुझ जैसी स्थिति के आदमी को जिस तरह रहना चाहिए, वह तुमने सिखा दिया। मेरी आमदनी मे प्राधा मेरी स्त्री का है। पर अब