पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९७

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Dr २९८ मानसरोवर खडी हो गई थीं। मैं चाहता था, जल्दी से गाड़ी में बैठकर यहां से चल दूं। घड़ी उनकी कलाई पर बँधी हुई थी। मुझे डर लग रहा था कि कहीं उन्होंने हाथ बाहर निकाला और दानू की निगाह घड़ी पर पड़ गई, तो बड़ी झेप होगी। मगर तक़दीर का लिखा कौन टाल सकता है। मैं देवीजी से दानू बाबू की सज्जनता का खूब बखान कर चुका था। अब जो दानू उसके समीप श्राकर सदूक उठवाने लगे, तो देवीजी ने दोनों हाथो से उन्हें नमस्कार किया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी देख ली । उस वक्त तो क्या बोलते; लेकिन ज्योंही देवीजी को एक ताँगे पर बिठाकर हम दोनों दूसरे तांगे पर बैठ कर चले, दानू ने मुसकिराकर कहा-'क्या घड़ी देवीजी ने छिपा दी थी ?' मैंने शर्माते हुए कहा-'नही यार, मैं ही दे आया था, दे क्या पाया था, उन्होंने मुझसे छीन ली थी।' दानू ने मेरा तिरस्कार करके कहा-'तो मुझसे झूठ क्यो बोले ?' 'फिर क्या करता। 'अगर तुमने साफ कह दिया होता, तो शायद मैं इतना कमीना नहीं हूँ कि तुमसे उसका तावान वसूल करता, लेकिन खैर, ईश्वर का कोई काम मसलहत से खाली नहीं होता। तुम्हें कुछ दिनो ऐसी तपस्या की जरू- रत थी। 'मकान कहीं ठीक किया है ? 'वहीं तो चल रहा हूँ। 'क्या तुम्हारे घर के पास ही है ? तब तो बड़ा मजा रहेगा।" 'हां, मेरे घर से मिला हुआ है, मगर बहुत सस्ता ।' दानू बाबू के द्वार पर दोनो ताँगे रुके। आदमियो ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू किया । एक क्षण मे दानू बाबू की देवीजी घर मे से निकलकर तांगे के पास आई और पत्नीजी को साथ ले गई । मालूम होता था, सारी बाते पहले ही से सधी-बधी थीं। मैंने कहा- 'तो यह कहो के हम तुम्हारे बिन बुलाये मेहमान हैं।" 'अब तुम अपनी मरज़ी का कोई मकान हूँढ़ लेना। दस पांच दिन तो यहाँ रहो।। यह