पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९८

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मोगे की घड़ी २९९ लेकिन मुझे यह जबरदस्ती की मेहमानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे ही दिन एक मकान तलाश कर लिया। बिदा होते समय दानू ने १००) लाकर मेरे सामने रख दिये, और कहा-'यह तुम्हारी अमानत है । लेते जायो ।' मैंने विस्मय से पूछा- 'मेरी अमानत कैसी ११ दानू ने कहा-'१५) के हिसाब से ६ महीने के ६9) हुए और १०) सूद ।' मुके दानू की यह सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला-'तो तुम घड़ी ले लेना चाहते हो ।' 'फिर घड़ी का ज़िक्र किया तुमने । उसका नाम मत लो।" 'तुम मुझे चारों ओर से दबाना चाहते हो ।' 'हां, दबाना चाहता हूँ, फिर ? तुम्हें आदमी बना देना चाहता हूँ। नहीं उम्रभर तुम यहाँ होटल की रोटियां तोड़ते और तुम्हारी देवीजी वहाँ बैठी तुम्हारे नाम को रोती। कैसी शिक्षा दी है, इसका एहसान तो न मानोगे।' 'यो कहो, तो आप मेरे गुरु बने हुए थे।' 'जी हां, ऐसे गुरु की तुम्हे जरूरत थी।' मुझे विवश होकर घड़ी का ज़िक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला- 'तो भई घड़ी" "फिर तुमने घड़ी का नाम लिया " 'तुम खुद मुझे मजबूर कर रहे हो।' 'वह मेरी ओर से भावज को उपहार है ।' १०१) मुझे उपहार मिले हैं। 'जी हाँ, यह इम्तहान मे पास होने का इनाम है ।' 'तब तो डबल उपहार मिला। 'तुम्हारी तक़दीर ही अच्छी है, क्या करूँ।' मैं रुपये तो न लेता था, पर दानू ने मेरी जेब में डाल दिये । लेने पड़े। इन्हें मैंने सेविंग बैंक में जमा कर दिया । १०) महीने पर मकान लिया था। ३०) महीने खर्च करता था। ५) बचने लगे। अब मुझे मालूम हुआ कि दानू बाबू ने मुझसे ६ महीने तक यह तपस्या न कराई होती, मैं न जाने कितने दिनों तक देवीजी को मैके में पड़ा रहने देता। उसी तपस्या - 'और ये १ € तो सचमुच