पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९९

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३०० मानसरोवर की बरकत थी कि आराम से जिंदगी कट रही थी, ऊपर से कुछ-न-कुछ जमा होता जाता था। मगर घड़ी का किस्सा मैंने आज तक देवीजी से नहीं कहा। पाचवे महीने में मेरी तरक्की का नंबर श्राया। तरक्की का परवाना मिला। मै सोच रहा था कि देखू श्रबकी दूसरी मदवाले १५) मिलते हैं या नहीं। पहली तारीख को वेतन मिला, वही ४५), मैं एक क्षण खड़ा रहा कि शायद बड़े बाबू दूसरी मदवाले रुपये भी दे । जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गये, तो बड़े बाबू बोले- क्या अभी लालच घेरे हुए है। अब और कुछ न मिलेगा। मैंने लज्जित होकर कहा-'जी नहीं, इस ख़याल से नहीं खड़ा हूँ। साहब ने इतने दिनो तक परवरिश की, यह क्या थोड़ा है। मगर कम-से कम इतना तो बता दीजिए कि किस मद से यह रुपया दिया जाता था। बड़े बाबू–'पूछकर क्या करोगे । 'कुछ नहीं, यों ही जानने को जी चाहता है ।' 'जाकर दानू बाबू से पूछो । 'दफ़्तर का हाल दानू बाबू क्या जान सकते हैं ।' 'नहीं, यह हाल वही जानते हैं ।' मैंने बाहर आकर एक तांगा लिया और दान के पास पहुंचा । आज पूरे दस महीने के बाद मैंने तांगा किराये पर किया था। इस रहस्य के जानने के लिए मेरा दम घुट रहा था । दिल में तय कर लिया था कि अगर बचा ने यह षड्यंत्र रचा होगा, तो बुरी तरह ख़बर लूंगा। श्राप बगीचे मे टहल रहे थे । मुझे देखा तो घबराकर बले-'कुशल तो है, कहाँ से भागे आते हो। मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाकर कहा-' -'मेरे यहाँ तो कुशल है, लेकिन तुम्हारी कुशल नहीं । 'क्यो भई, क्या अपराध हुआ है " 'आप बतलाइए कि पांच महीने तक मुझे जो १५) वेतन के ऊपर मिलते थे, यह कहाँ से आते थे ? 'तुमने बड़े बाबू से नहीं पूछा ? तुम्हारे दफ्तर का हाल मैं क्या जानू ।' आजकल दानू से बेतकल्लुफ हा गया.या । बोना- -