पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०२

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i , स्मृति का पुजारी कचहरी से छुट्टी पाते ही वह प्रेम का पथिक दी भागता था। आप कितना ही आग्रह करे; पर उस वक्त कमिनट के लिए भी न रुकता था और अगर कभी महाशवजी के आने में देर हो जाती थी, तो वह प्रम-योगिनी छज्जे पर खड़ी होकर उनकी राह देखा करती थी और पच्चीस साल के अभिन्न सहचार ने उनकी श्रात्माओं में इतनी समानता पैदा कर दी थी कि जो बात एक के दिल मे बाती थी, वही दूसरे के दिल मे बोल उठती थी। यह बात नहीं कि उनमे मतभेद न होता हो। बहुत से विषयों में उनके विचारो मे प्राकाश-पाताल का अतर था, और अपने पक्ष के समर्थन और परपक्ष के खडन मे उनमे खूब झाँव-झाव होती थी। कोई बाहर का आदमी सुने, तो समझे कि दोनों लड रहे है, और अब हाथापाई की नौबत पानेवाली है, मगर उनके मुबाहसे मस्तिष्क से होते थे । हृदय दोनो के एक, दोनो सहृदय, दोनो प्रसन्नचित्त, स्पष्ट कहने- वाले, निःस्पृह, मानो देवले क के निवासी हो , इसलिए पत्नी का देहात हुआ, तो कई महीने तक हम लोगों को यह अदेशा रहा कि यह महाशय आत्म- हत्या न कर बैठे। हम लोग सदैव उनकी दिलजोई करते रहते कभी एकात में न बैठने देते। रात को भी कोई न कोई उनके साथ लेटता था। ऐसे व्यक्तियों पर दूसरो को दया श्राती ही है। मित्रो की पत्नियां तो इनपर जान देती थीं। उनकी नजरों में वह देवताओं के भी देवता थे। उनकी मिसाल दे-देकर शपने पुरुषों से कहती-इसे कहते हैं प्रम ! ऐसा पुरुप हो, तो क्यों न स्त्री उसकी गुलामी करे । जब से बीबी मरी है, गरीब ने कभी भरपेट भोजन नहीं किया, कभी नींद भर नही सोया। नहीं तुम लोग दिल मे मनाते रहते हो कि यह मर जाय, तो नया व्याह रचाये। दिल में खुश होंगे कि अच्छा हुआ मर गई, रोग टला, अब नई-नवेली स्त्री लायेगे। और तब महाशयजी का पैतालीसवाँ साल था, सुगठित शरीर था, स्वास्थ्य अच्छा, रूपवान्, विनोदशील, सपन्न । चाहते तो तुरंत दुसरा ब्याह कर लेते। उनके हाँ करने की देर थी। गरज के बावले कन्य वालो ने सदेशे भेजे, मित्रो ने भी उजडा घर बसाना चाहा; पर इस स्मृति के पुजारी ने प्रेम के नाम को दाग न लगाया। अब हफ्तों बाल नहीं बनते .