पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०७

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मानसरोवर तिनकर्कर बोले-मैंने तो तुमसे कह दिया था, मेरे घर मत आना, फिर क्यो भाये, और क्यों मेरे पीछे पड़े ! मुझे अपने धीरे-धीरे घूमने दो। तुम अपना रास्ता लो। मैंने उनका हाथ पकड़कर ज़ोर से एक झटका दिया और बोला- देखो, होरीलाल, मुझसे उड़ों नहीं, वरना मुझे जानते हो, कितना बेमुरौवत आदमी हूँ। तुम्न यह धीरे-धीरे टहल रहे हो, या डबल मार्च कर रहे हो। मेरी पिंड- लियों में दर्द होने लगा और पसलियां दुख रही हैं । डाक का हरकारा भी तो इस चाल से नहीं दौड़ता। उसपर ग़ज़ब यह कि तुम थके नहीं हो, अब भी उसी दम-खम के साथ चले जा रहे हो। अब तो तुम डंडे लेकर भगाओ, ये भी तुम्हारा दामन न छोड़ें । तुम्हारे साथ दो मील भी चलू गा, तो पसी कसरत हो जायगी, मगर अब साफ साफ बतलान', बात क्या कर रहे हो, वानी कहाँ से आ गई ! अगर किसी अकसीर का सेवन मॅगवा लूंगा; अगर हो। कम से कम उसे मॅगाने का पता बता दो, पीर के पास ले चलो। ताबीज की करामात है, तो मुझे भी उस मुसकिराकर बोले-तुम तो पागल हो, बूढ़े हो गये, मगर लड़कपन न गया। क्या तुम का मुझे दिक कर रहे हो। उसी तरह मुर्दा पड़ा रहूँ। इतना भी तुमसे नहीं देखा जाता ! हो कि मैं हमेशा मिजाज ही-न मिलते थे। कितनी चिरौरी की कि भाई जान, मुझ भेगरे को तो तुम्हारे भी साथ ले लिया करो। मगर आप नखरे दिखाने लगे। अब क्यों मेरे पीछ । पड़े हो ? यह समझ लो, जो अपनी मदद आप करता है, उसको मदद परमात्मा भी करते हैं । मित्रों और बंधुश्रो की मुरौवत देख ली। अब अपने बूते पर चलूगा। वह इसी तरह मुझे कोसते जा रहे थे और मैं उन्हें छेड़-छेड़कर और भी उत्तेजित कर रहा था, कि एकाएक उन्होने उँगनी मुँह पर रखकर मुझे चुप रहने का इशारा किया, और जरा कद और सीधा कर के और चेहरे पर प्रसन्नता और पुरुषार्थ का रंग भर मस्तानी चाल से चलने लगे। मेरो समझ में जरा भी न आया, यह सकेत और बहुरूप किस लिए ! वहाँ तो