पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३७

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दो कब्र n अब न वह यौवन है, न वह नशा, न वह उन्माद । वह महफ़िल उठ गई, वह दीपक बुझ गई, जिससे महफिल की रौनक थी। वह प्रेममूर्ति कब की गोद में सो रही है । हाँ, उसके प्रेम की छाप अब भी हृदय पर है और उसकी अमर स्मृति आँखो के सामने । वारांगनाओं में ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दुर्लभ है और रईसों में ऐसा विवाह, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी दुर्लभ । कुँवर रनबीर सिंह रोज़ बिला नागा संध्या समय जुहरा की कब के दर्शन करने जाते थे, उसे फूलों से सजाते, अासुत्रों से सींचते। पंद्रह साल गुज़र गये, एक दिन भी नागा नही हुआ । प्रेम की उपासना ही उनके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम का, जिसमें उन्होंने जो कुछ देखा वही पाया और जो कुछ अनुभव किया, उसी की याद अब भी उन्हें मस्त कर देती है। इस उपासना में सुलोचना भी उनके साथ होती, जो जुहरा का प्रसाद और कुँवर साहब की सारी अभिलाषाओं की केंद्र थीं। कुँवर साहब ने दो शादियां की थीं, पर दोनों स्त्रियो में से एक भी संतान का मुँह न देख सकी । कुँवर साहब ने फिर विवाह न किया। एक दिन एक महफिल में उन्हे जुहरा के दर्शन हुए। उस निराश पति और अतृप्त युवती में ऐसा मेल, मानो चिरकाल से बिछुड़े हुए दो साथी फिर मिल गये हो । जीवन का वसन्त-विकास सगीत और सौरभ से भरा हुश्रा आया मगर अफ़सोस ! पांच वर्षों के अल्पकाल मे उसका भी अंत हो गया। वह मधुर स्वप्न निराशा से भरी हुई जागृति में लीन हो गया । वह सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सुलोचना को उनकी गोद मे सौंपकर सदा के लिए सिधार गई। कुवर साहब ने इस प्रमादेश का इतने अनुराग से पालन किया कि देखनेवालो को आश्चर्य होता था । कितने ही तो उन्हें पागल समझते थे सुलोचना ही की नींद सोते, उसी की नींद जगाते, खुद पढ़ाते, उसके साथ