पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३८

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दो कने ३७ सैर करते-इतनी एकाग्रता के साथ, जैसे कोई विधवा अपने अनाथ बच्चे को पाले। जब से वह यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई, उसे खुद मोटर में पहुँचा आते और शाम को खुद जाकर ले आते। वह उसके माथे पर से वह कलक-धो डालना चाहते थे, जो मानो विधाता ने क्रूर हाथो से लगा दिया था। धर्न तो उसे न धो सका, शायद विद्या धो डाले। एक दिन शाम को कुवर साहब जुहरा के मज़ार को फूलों से सजा रहे थे और सुलोचना कुछ दूर पर खडी अपने कुत्ते को गेद खेला रही थी कि सहसा उसने अपने कालेज के प्रोफेसर डाक्टर रामेंद्र को श्राते देखा। सकुचाकर मुँह फेर लिया, मानो उन्हें देखा नहीं। शका हुई कहीं रामेंद्र इस मज़ार के विषय में कुछ पूछ न यूनिवर्सिटी मे दाखिल हुए उसे एक साल हुअा। इस एक साल मे उसने प्रणय के विविध रूपों को देख लिया था। कहीं क्रीडा थी, कहीं विनोद था, कहीं कुत्सा थी, कहीं लालसा थी, कहीं उच्छृङ्खलता थी, कितु कहीं वह सहृदयता न थी, जो प्रेम का मूल है। केवल रामेद्र ही एक ऐसे सजन थे, जिन्हें अपनी ओर ताकते देखकर उसके हृदय मे सनसनी होने लगती थी। पर उनकी आँखो मे कितनी विवशता, कितनी पराजय, कितनी वेदना छिपी होती थी। रामेंद्र ने कुंवर साहब की ओर देखकर कहा- तुम्हारे बाबा इस कन्न पर क्या कर रहे हैं ! सुलोचना का चेहरा कानो तक लाल हो गया। बोली-~यह इनकी पुरानी आदत है। रामेंद्र-किसी महात्मा की समाधि है ? सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा । रामेंद्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की दाश्ता औरत की लड़की है ; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसी की कब्र है और कुंवर साहब अतीत प्रम के इतने उपासक हैं । मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था । कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जल्दी से जूता mo