पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३९

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३८ मानसरोवर पहन लिया और समीप जाकर बोले--संसार की आँखों में तो वह महात्मा न थीं ; पर मेरी आँखों मे थीं और हैं । यह मेरे प्रम की समाधि है। सुनोचना की इच्छा होती थी, यहां से भाग जाऊँ; लेकिन कुवर साहब को जुहरा के यशोगान मे आत्मिक आनंद मिलता था। रामेंद्र का विस्मय देखकर बोले-इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी का प्रसाद है। रामेंद्र ने क़ब्र की तरफ़ देखकर आश्चर्य से कहा-अच्छा ! कुँवर साहब ने मन में उस प्रम का आनद उठाते हुए कहा-~-वह जीवन ही और था, प्रोफेसर साहब । ऐसी तपस्या मैंने और कहीं नहीं देखी । आपको फुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यौवन-स्मृतियों... सुलोचना बोल उठी--वह सुनाने की चीज़ नहीं है, दादा ! "कुवर-मैं रामेंद्र बाबू को गैर नहीं समझता । रामेंद्र को प्रेम का यह अलौकिक रूप मनोविज्ञान का एक रत्न-सा मालूम हुया । वह कु वर साहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन हसरत में डूबी हुई प्रम स्मृतियों को सुनते रहे । जो वरदान मांगने के लिए उन्हें साल भर से साहस न होता था, दुविधे में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने मांग लिया । लेकिन विवाह के बाद रामेद्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना-जाना प्रायः बंद हो गया। इसके साथ ही मर्द दोस्तों की आमदरफ्त बढ़ गई । दिन भर उनका तांता लगा रहता था। सुलोचना उनके आदर- सत्कार में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेंद्र ने इधर ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब कई महीने गुज़र गये और स्त्रियों ने बहिष्कार का त्याग न किया तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा-यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं ! सुलोचना ने धीरे से कहा-हाँ देखती तो हूँ। रामेंद्र-इनकी औरते तो तुमसे परहेज़ नहीं करतीं ? सुलोचना-शायद करती हों।