पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४१

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४० मानसरोवर बैठती, उसे लोग घेर लेते थे । कभी कभी सुलोचना गाती भी थी। उस वक्त सबके सब उन्मत्त हो जाते । क्लब में महिलाओ की संख्या अधिक न थी। मुश्किल से ५-६ लेडियां आती थीं ; मगर वे भी सुलोचना से दूर-दूर रहती थीं, बल्कि अपनी भाव- भगियों और कटाक्षो से वे उसे जता देना चाहती थीं कि तुम पुरुषो का दिल खुश करो, हम कुल-वधुओं के पास तुम नही पा सकती। लेकिन जब रामेद्र पर इस कटु सत्य का प्रकाश हुश्रा, तो उन्होंने क्लब जाना छोड़ दिया, मित्रो के यहाँ आना जाना भी कम कर दिया, और अपने यहाँ आनेवालों की भी उपेक्षा करने लगे। वह चाहते थे, कि मेरे एकातवास में कोई विघ्न न डाले। आखिर उन्होने बाहर श्राना-जाना छोड़ दिया। अपने चारों ओर छल-कपट का जाल-सा बिछा हुआ मालूम होता था, किसी पर विश्वास न कर सकते थे, किसी से सद्व्यवहार की आशा नहीं। सोचते- ऐसे धूर्त, कपटी, दोस्ती की आड़ मे गला काटनेवाले आदमियो से मिले ही क्यों ? वे स्वभाव से मिलनसार आदमी थे । पक्के यारबाश। यह एकातवास जहाँ न कोई सैर थी, न विनोद, न कोई चहल-पहल, उनके लिए कठिन कारावास से कम न था । यद्यपि कर्म और वचन से सुलोचना की दिलजोई करते रहते थे, लेकिन सुलोचना की सूक्ष्म और सशक आँखों से अब यह बात छिपी न थी कि यह अवस्था इनके लिए दिन दिन असह्य होती जाती थी। वह दिल में सोचती-इनकी यह दशा मेरे ही कारण तो है, मै ही तो इनके जीवन का कांटा हो गई ! एक दिन उसने रामेंद्र से कहा--आजकल क्लब क्यों नहीं चलते १ कई ससाह हुए घर से निकले तक नहीं। रामेद्र ने बेदिली से कहा-मेरा जी कहीं जाने को नहीं चाहता। अपना घर सबसे अच्छा। सुलोचना-जी तो ऊबता ही होगा। मेरे कारण यह तपस्या क्यों करते हो ? मैं तो न जाऊँगी । उन स्त्रियों से मुझे घृणा होती है। उनमें एक भी ऐसी नहीं, जिसके दामन पर काले दाग नहीं; लेकिन सब सीता बनी फिरती