पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४४

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दो को ४३ रामेद्र-जी हाँ । पू, कि श्राप लोग जो समाज-सुधार का राग अला- पते फिरते हैं, वह किस बल पर । कुँवर-व्यर्थ है । जाकर आराम से लेटो। नेक व बद की सब से बडी पहचान अपना दिल है । अगर हमारा दिल गवाही दे कि यह काम बुरा नहीं, तो फिर सारी दुनिया मुँह फेर ले, हमे किसी की परवाह न करनी चाहिए । रामेद्र--लेकिन मैं इन लोगों को यो न छोडू गा एक एक का बखिया उधेडकर न रख दूं, तो नाम नहीं । यह कहकर उन्होंने पत्तल और शकोरे उठवा-उठवाकर कंगालों को देना शुरू किया। , रामेद्र सैर करके लौटे ही थे कि वेश्याग्रो का एक दल सुलोचना को बधाई देने के लिए आ पहुँचा | जुहरा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार । सुलोचना के यहाँ पहले बराबर आती-जाती थी। इधर दो साल से न आई थी। यह उसी का बधावा था। दरवाजे पर अच्छी खासी भीड़ हो गई थी। रामेंद्र ने यह शोर-गुल सुना । गुलनार ने आगे बढकर उन्हे सलाम किया और बोली-बाबूजी, वेटी मुबारक, बधावा लाई हूँ। रामेद्रपर मानो लकवासा गिर गया। सिर झुक गया और चेहरे पर कालिमा-सी पुत गई । न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले । बस मूर्तिवत् खड़े रह गये। एक बाजारी औरत से नाता पैदा करने का ख्याल इतना लजास्पद था, इतना जघन्य कि उसके सामने सज्जनता भी मौन रह गई ? इतना शिष्टाचार भी न कर सके कि सबों को कमरे में लेजाकर बिठा तो देते । अाज पहली ही बार उन्हें अपने अधःपतन, का अनुभव हुआ। मित्रों की कुटिलता और महिलाओं की उपेक्षा को वह उनका अन्याय समझते थे, अपना अपमान नहीं, लेकिन यह बधावा उनकी अवाध्य उदारता के लिए भी भारी था। सुलोचना का जिस वातावरण मे पालन-पोषण हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित हिदू कुल का वातावरण था । यह सच है कि अब भी सुनोचना नित्य जुहरा के मज़ार की परिक्रमा करने जाती थी , मगर जुहग अब एक