पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मानसरोवर पवित्र रमृति थी, दुनिया की मलिनताश्रो और कलुषताओं से रहित । गुलनार से नातेदारी और परस्पर का निबाह दूसरी बात थी । जो लोग तसवीरों के सामने सिर झुकाते हैं, उनपर फूल चढ़ाते हैं, वे भी तो मूर्ति पूजा की निदा करते हैं। एक स्पष्ट है, दूसरा साकेतिक । एक प्रत्यक्ष है, दूसरा आँखों से छिपा हुआ। सुलोचना अपने कमरे मे चिक की बाड़ मे खड़ी रामेद्र का असमजस और क्षोभ देख रही थी। जिस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चाहा था, जिसके द्वार पर सिजदे करते उसे बरसों हो गये थे, उसकी तरफ से निराश होकर, उसका हृदय इस समय उससे विद्रोह करने पर तुला हुआ था। उसके जी में आता था-गुलनार को बुलाकर गले लगा लूं। जो लोग मेरी बात भी नही पूछते, उनकी खुशामद क्यों करूँ ! यह बेचारियाँ इतनी दूर से आई हैं मुझे अपना ही समझकर तो ; उनके दिल मे प्रम तो है, यह मेरे दुख सुख मे शरीक होने को तैयार तो हैं । आखिर रामेद्र ने सिर उठाया और शुष्क मुस्कान के साथ गुलनार से बोले-ग्राहए, आप लोग अदर चली बाइए, यह कहकर वह आगे-आगे रास्ता दिखाते हुए दीवानखाने की और चले कि सहसा महरी निकली और मुलनार के हाथ में एक पुर्जा देकर चली गई। गुलनार ने वह पुर्जा लेकर देखा और उसे रामेद्र के हाथ देकर वहीं खड़ी हो गई। रामेंद्र ने पुर्जा देखा, लिखा था-बहन गुलनार, तुम यहाँ नाहक आई। हम लोग योंही बदनाम हो रहे हैं । अब और बदनाम मत करो, बधावा वापस ले जायो। कभी मिलने का जी चाहे, तो रात को पाना और अकेली। मेरा जी तुम्हारे मले लिपटकर रोने के लिए तड़प रहा है ; मगर मजबूर हूँ। रामेंद्र ने पुर्जा फाडकर फेक दिया और उद्दड होकर ब'ले-इन्हें लिखने दो। मैं किसी से नहीं डरता । अदर आयो । गुलनार ने एक कदम पीछे फिरकर कहा-नहीं बाबूजी, अब हमे श्राजा दीजिए। रामेद्र-एक मिनट तो बैठो। गुलनार-जी नहीं। एक सेकिंड भी नहीं।