पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५१

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मानसरोवर . दया करो। इस वक्त कहीं मत जाओ, नहीं हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा। रामेंद्र बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी हैं। फिर तुमसे बड़े हैं, ज्यादा विचार- वान हैं, उन्हीं का कहना मान जायो । मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हारी मा जब थीं, तो कई बार ऐसी नौबत आई कि मैंने उससे कहा-घर से निकल जाओ पर उस प्रेम की देवी ने कभी ड्योढ़ी के बाहर पाव नहीं निकाला। इस वक्त धैर्य से काम लो। मुझे विश्वास है, जरा देर में रामेंद्र बाबू खुद लज्जत होकर तुम्हारे पास अपना अपराध क्षमा कराने आये। सहसा रामेद्र ने श्राकर पूछा-गाड़ी क्यों मॅगवाई ? कहाँ जा रही हो ? रामेद्र का चेहरा इतना क्रोधोन्मत्त हो रहा था, कि सुलोचना सहम उठी। दोनों आँखों से ज्वाला-सी निकल रही रही थी। नथने फड़क रहे थे। पिंडलियों काँप रही थीं। यह कहने की हिम्मत न पड़ी कि गुलनार के घर जाती हूँ। गुलनार का नाम सुनते ही शायद यह मेरी गर्दन पर सवार हो जायँगे-इस भय से वह कांप उठी। आत्मरक्षा का भाव प्रबल हो गया। बोली-ज़रा अम्मा के मज़ार तक जाऊँगी। रामेद्र ने डाटकर कहा-कोई जरूरत नहीं वहां जाने की। सुलोचना ने कातर स्वर मे कहा-क्यों अम्मा के मज़ार तक जाने की भी रोक है ? रामेद्र ने उसी ध्वनि मे कहा-हाँ। सुखोचना-तो फिर अपना घर सम्हालो, मैं जाती हूँ। रामेंद्र-जाओं, तुम्हारे लिए क्या, यह न सही दूसरा घर सही ! अभी तक तस्मा बाकी था, वह भी कट गया। यों शायद सुलोचना वहाँ से कुँअर साहब के बंगले पर जाती, दो-चार दिन रूठी रहती, फिर रामेद्र । उसे मना लाते और मामला तै हो जाता; लेकिन इस चोट ने समझौते और संधि की जड़ काट दी । सुलोचना दरवाजे तक पहुंची थीं, वही चित्र-लिखित. {सी खड़ी रह गई। मानो किसी ऋषि के शाप ने उसके प्राण खींच लिये हो । वहीं बैठ गई। न कुछ बोल सकी, न कुछ सोच सकी। जिसके सिर पर बिलली गिर पड़ी हो, वह क्या सोचे, क्या रोये, क्या बोले । रामेद्र के यह शब्द बिजली से कहीं अधिक घातक थे । सुलोचना कब तक वहाँ बैठी रही, उसे कुछ खबर न थी। जब उसे कुछ