पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५५

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मानसरोवर देवी जी मुसकिराकर बोलीं-कूड़ा न कहिए, एक-एक पत्र साहित्य का रन है। श्राप तो इधर आये नहीं। इनके एक नये मित्र पैदा हो गये हैं। गह उन्हीं के कर-कमलों के प्रसाद हैं । 3 पोरसख ने अपनी नन्हीं-नन्हीं अखि सिकोड़कर कहा-तुम उसके नाम से क्यो इतना जलती हो, मेरी समझ में नहीं आता ? अगर तुम्हारे-दो चार सौ रुपये उसपर आते हैं, तो उनका देनदार मैं हूँ। वह भी अभी जीता- जागता हैं। किसी को बेईमान क्यों समझती हो? यह क्यों नहीं समझती कि उसे अभी सुविधा नहीं है। और फिर दो-चार सौ रुपये एक मित्र के हाथों डूब ही जाय, तो क्यों रोप्रो। माना हम गरीब हैं, दो-चार सौ रुपये हमारे दो-चार लाख से कम नहीं लेकिन खाया तो एक मित्र ने ! देवीजी जितनी रूपवती थीं, उतनी ही ज़बान की तेज़ थीं। बोली- अगर ऐसों ही का नाम मित्र है, तो मै नहीं समझती, शत्रु किसे कहते हैं । ढपोरसं व ने मेरी तरफ देखकर, मानो मुझसे हामी भराने के लिए कहा-औरतों का हृदय बहुत ही संकीर्ण होता है । देवीजी नारी-जाति पर यह आक्षेप कैसे सह सकती थीं। श्राखे तरेरकर धोली-यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो ! दाल गिर जाने पर तुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं जानती हूँ, रुपया हाथ का मैल है। यह भी समझती हूँ कि जिसके माग्य का जितना होता है, उतना वह खाता है ; मगर यह मैं कभी न मानू गी, कि वह सजन था और आदर्शवादी था और यह था, वह था। साफ़-साफ क्यों नहीं कहते, लपट था, दगाबाज़ था! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं। • हपोरसख ने गर्म होकर कहा-मैं यह नहीं मान सकता। देवीजी भी गर्म होकर बोलीं-तुम्हें मानना पड़ेगा। महाशयजी आ गये हैं। मैं इन्हें पच बदतो हूँ। अगर यह कह देगे, कि सजनता का पुतला था, आदर्शवाला था, वीरात्मा था, तो मै मान लूंगी और फिर उसका नाम न लूंगी। और य द इनका फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो लाला तुम्हें इनको अपना बहनोई बहना पड़ेगा। , ,