पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५७

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मानसरोवर मैंने ढाढ़स दिया-यह आप कैसे कह सकते हैं, मैं क्या फैसला करूँगा ? 'मैं तुम्हें जानता जो हूँ। तुम्हारी अदालत में औरत के सामने मर्द कभी जीत ही नहीं सकता।' 'तो क्या चाहते हो तुम्हारी डिग्री कर दूँ ?' 'क्या दोस्ती का इतना हक भी नहीं अदा कर सकते ? 'अच्छा लो, तुम्हारी जीत होगी, चाहे गालियां ही क्यों न मिले।' खाते-पीते दोपहर हो गया। रात का जागा था। सोने की इच्छा हो रही थी ; पर देवीजी कब माननेवाली थीं। मोजन करके आ पहुंची। ढपोर- सख ने पत्रो का पुलिंदा समेटा और वृत्तात सुनाने लगे। देवीजी ने सावधान किया-एक शब्द भी झूठ बोले, तो जुर्माना होगा। ढपोरसंख ने गभीर होकर कहा-झूठ वह बोलता है, जिसका पक्ष निबल होता है। मुझे तो अपनी विजय का विश्वास है। इसके बाद कथा शुरू हो गई- 'दो साल से ज्यादा हुए, एक दिन मेरे पास एक पत्र पाया, जिसमें साहित्यसेवा के नाते एक ड्रामे की भूमिका लिखने की प्रणा की गई थी। यह करुणाकर का पत्र था। इस साहित्यक रीति से मेरा उनसे प्रथम परिचय हुआ। साहित्यकारो की इस ज़माने मे जो दुर्दशा है, उसका अनुभव कर चुका हूँ, और करता रहता हूँ, और यदि भूमिका तक बात रहे, तो उनकी सेवा करने मे पसोपेश नहीं होता। मैंने तुरन जवाब दिया-आप ड्रामा भेज दीजिए। एक सप्ताह में ड्रामा आ गया ; पर अबके पत्र मे भूमिका लिखने ही की नहीं, कोई प्रकाशक ठीक कर देने की भी प्रार्थना की गई थी। मैं प्रकाशकों के झंझट में नहीं पड़ता । दो-एक. बार पड़कर कई मित्रो को जानी दुश्मन बना चुका हूँ। मैंने ड्रामे को पढ़ा, उस पर भूमिका लिखी और हस्तलिपि लौटा दी । ड्रामा मुझे सुदर मालूम हुआ ; इसलिए भूमिका भी प्रशंसात्मक थी। कितनी ही पुस्तकों की भूमिका भी लिख चुका हूँ। कोई नई बात न थी; पर अबकी भूमिका लिखकर पिंड न छूटा । एक सप्ताह के बाद एक लेख अाया, कि इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दीजिए । ( ढपोर- सख एक पत्रिका के सम्पादक हैं ) इसे गुण कहिए या दोष, मुझे दूसरो पर