पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५९

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५८ मानसरावर में लगा रहता था। अपना भविष्य बनाने का ऐसा अवसर पाकर वह उसे कैसे छोड़ देता। यह सारी बाते स्नेह और विश्वास को बढ़ानेवाली थीं। एक आदमी को कठिनाइयों का सामना करते देखकर किसे उससे प्रेम न होगा! विश्वास न होगा, गर्व न होगा! प्रयाग में वह ज़्यादा न ठहर सका । उसने मुझे लिखा, मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ, भूखों मरने को तैयार हूँ , पर अात्मसम्मान में दाग नहीं लगा सकता, कुवचन नहीं सह सकता। ऐसा चरित्र यदि आप पर प्रभाव न डाल सके, तो मैं कहूँगा, आप चालाक चाहे जितने हों ; पर हृदय-शून्य हैं । एक सप्ताह के बाद प्रयाग से फिर पत्र आया-यह व्यवहार मेरे लिए असह्य हो गया। आज मैंने इस्तीफा दे दिया। यह न समझिए, कि मैंने हलके दिल से लगी-लगाई रोज़ी छोड़ दी। मैंने वह सब किया, जो मुझे करना चाहिए था। यहां तक कि कुछ-कुछ वह भी किया, जो मुझे न करना चाहिए था पर श्रात्मसम्मान का खून नहीं कर सकता। अगर यह कर सकता, तो मुझे घर छोड़कर निकलने की क्या आवश्यकता थी। मैंने बम्बई जाकर अपनी किस्मत आजमाने का निश्चय किया है । भेरा दृढ़ सकल्प है कि अपने घरवालों के सामने हाथ न फैलाऊँगा, उनसे दया की भिक्षा न मागूंगा । मुझे कुलीगरी करनी मजूर है, टोकरी ढोना मजूर है ; पर अपनो आत्मा को कलकित नहीं कर सकता। मेरी श्रद्धा और बढ गई। यह व्यक्ति अब मेरे लिए केवल ड्रामा का चरित्र न था, जिसके सुख से सुखी और दुख से दुखी होने पर भी हम दर्शक ही रहते हैं । वह अब मेरे इतने निकट पहुँच गया था, कि उसपर प्राधात होते देखकर मै उसकी रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते देखकर पानी मे कूदने से भी न हिचकता। मै बड़ी उत्कठा से उसके बंबई से श्रानेवाले पत्र का इतज़ार करने लगा। छठवे ही दिन पत्र प्राया। वह बबई मे काम खोज रहा था, लिखा था-घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मै सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। फिर दो- दो चार-चार दिन के अंतर से कई पत्र आये । वह वीरों की भांति कटिनाइयों