पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ढपोरसंख A के सामने कमर कसे खड़ा था, हालांकि तीन दिन से उसे भोजन र मिला था। श्रोह | कितना ऊँचा आदर्श है ! कितना उज्ज्वल चरित्र ! मैं समझता हूँ, मैंने उस समय बड़ी कृपणता की । मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा-यक बेचारा इतने कष्ट उठा रहा है, और तुम बैठे देख रहे हो । क्यों उसके पास कुछ रुपये नहीं भेजते ? मैंने आत्मा के कहने पर अमल न किया ; पर अपनी बेदर्दी पर खिन्न अवश्य था। जब कई दिन की बेचैनी भरे हुए इतजार के बाद यह समाचार आया, कि वह एक साप्ताहिक पत्र के सपादकीय विभाग में जगह पा गया है, तो मैंने आराम की सांस ली और ईश्वर को सच्चे दिल से धन्यवाद दिया। साप्ताहिक मे जोशी के लेख निकलने लगे। उन्हें पढ़कर मुझे गर्व होता था । कितने सजीव, कितने विचार से भरे लेख थे। उसने मुझसे भी लेट मांगे ; पर मुझे अवकाश न था। क्षमा मांगी, हालाकि इस अवसर पर उसको प्रोत्साहन न देने पर मुझे बड़ा खेद होता था। लेकिन शायद बाधाएँ हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी थीं। पत्र के बाहर कम थे । चदे और डोनेशन से काम चलता था। रुपये हाथ आ जाते, तो कर्मचारियो को थोडा-धोडा मिल जाता, नहीं आसरा लगाये काम करते रहते । इस दशा में गरीब ने तीन महीने काटे होंगे। आशा थी, तीन महीने का हिसाब होगा, तो अच्छी रकम हाथ लगेगी, मगर वहाँ सूखा जवार मिला । स्वामी ने टाट उलट दिया, पत्र बद हो गया और कर्मचारियों को अपना-सा मुह लिये बिदा होना पड़ा। स्वामी की सजनता मे संदेह नहीं; लेकिन रुपये कहाँ से लाता! सजनता के नाते लोग अाधे वेतन पर काम कर सकते थे , लेकिन पेट बांधकर काम करना कब मुमकिन था। और फिर बबई का खर्च। बेचारे जोशी को फिर ठोकरे खानी पड़ीं। मैने खत पढ़ा, तो बहुत दुःख हुश्रा। ईश्वर ने मुझे इस योग्य न बनाया, नहीं वेचारा क्यों पेट के लिए यों मारा मारा फिरता! बारे अबकी बहुत हैरान न होना पड़ा। किसी मिल में गाठों पर नजर लिखने का काम मिल गया। एक रुपया रोज मजूरी थी। बबई में एक