पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६४

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ढपोरसंख मगर काम बहुत करना पड़ता है और मुझे कुछ लिखने का अवसर नहीं मिलता खैर, रात को तो मैंने इसी कमरे में उन्हें सुलाया। दूसरे दिन यहाँ के एक होटल मे प्रबंध कर दिया। होटलवाले पेशगी रुपये ले लेते हैं। जोशी के पास रुपये न थे । मुझे तीस रुपये देने पड़े। मैंने समझा, इसका वेतन तो आता ही होगा, ले लूँगा। यहाँ मेरे एक माथुर मित्र हैं । उनसे भी मैंने जोशी का जिक्र किया था। उसके आने की खबर पाते ही होटल दौडे । दोनो मे दोस्ती हो गई। जोशो' दो-तीन बार दिन मे, एक बार रात को जरूर आते और खूब बाते करते। देवीजी उनको हाथों पर लिये रहतीं। कभी उनके लिए पकौड़ियाँ बन रही हैं, कभी हलवा । जोशी हरफनमौला था। गाने में कुशल, हारमोनियम में निपुण, इंद्रजाल के करतब दिखलाने में कुशल । सालन अच्छा पकाता था। देवीजी को गाना सीखने का शौक पैदा हो गया था। उसे म्यूजिक मास्टर बना लिया। देवीजी लाल मुँह करके बोलीं - तो क्या मुफ्त में हलवा, पकौड़ियाँ और पान बना बनाकर खिलाती थीं? एक महीना गुज़र गया , पर जोशी का वेतन न आया। मैने पूछा भी नहीं । सोचा, अपने दिल में समझेगा, अपने होटलबाले रुपयो का तकाजा कर रहे हैं । माथुर के घर भी उसने आना जाना शुरू कर दिया। दोनो साथ घूमने जाते ; साथ रहते । जोशी जब पाते, माथुर का बखान करते , माथुर जब पाते, जोशी की तारीफ करते । जोशी के पास अपने अनुभवों का विशेष भण्डार था । वह फौज में रह चुका था । जब उसकी मॅगेतर का विवाह दूसरे आदमी से हो गया, तो शोक में उसने फौजी नौकरी छोड़ दी थी। सामरिक जीवन की न-जाने कितनी ही घटनाएँ उसे याद थीं। और जब अपने मा बाप और चाचा-चाची का जिक्र करने लगता, तो उसकी आँखों में आंसू भर आते । देवीजी भी उसके साथ रोतीं। देवीजी ति: आँखों से देखकर रह गई । बात सच्ची थी। एक दिन मुझसे अपने एक ड्रामे की बड़ी तारीफ की। वह ड्रामा कलकत्ते