पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६७

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मानसरोवर , सुनाया। बोले-तो उसे मेरे साथ कर दीजिए। अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बना लूंगा । मेरे घर में रहे, मेरे साथ घर के आदमी की तरह रहे । जेब-खर्च के लिए मुझसे तीस रुपये महीना लेता जाय । मेरे साथ ड्रामे लिखे । मैं फूला न समाया । जोशी से कहा। जोशी भी तैयार हो गया, लेकिन जाने के पहले उसे कुछ रुपर्यो की ज़रूरत हुई। एक भले आदमी के साथ फटेहालों तो जाते नहीं बनता और न यही उचित था, कि पहले ही दिन से रुपये का तकाजा होने लगे। बहुत काट-छाँट करने पर भी चालीस रुपये का खर्च निकल आया। जूते टूट गये थे। धोतियां फट गई थीं। और भी कई खर्च थे, जो इस वक्त याद नहीं आते। मेरे पास रुपये न थे। श्यामा से मांगने का हौसला न हुआ। देवीजी बोलीं-मेरे पास तो काल का ख़ज़ाना रखा था न ! कई हज़ार महीने लाते हो, सौ-दो सौ रुपये बचत मे आ ही जाते होगे। ढपोरसंख इस व्यंग्य पर ध्यान न देकर अपनी कथा कहते रहे-रुपये पाकर जोशी ने ठाट बनाया और काउन्सिलर साहब के साथ चले । मैं स्टेशन तक पहुँचाने गया । माथुर भी था। लौटा, तो मेरे दिल पर से एक बोझ उतर गया था। माथुर ने कहा-बड़ा मुहब्बती आदमी है । मैने समर्थन किया-बड़ा । मुझे तो भाई-सा मालूम होता है । 'मुझे तो श्राब घर अच्छा न लगेगा । घर के सब आदमी रोते रहे । मालूम ही न होता था, कि कोई गैर आदमी है। अम्मा से लड़के की तरह बाते करता था। बहनो से भाई की तरह ।। 'बदनसीब आदमी है, नहीं, जिसका बाप दो हजार रुपये माहवारी कमाता हो, वह यो मारा-सारा फिरे ।' 'दाजिलिग मे इनके बाप की दो कोठियां हैं।" 'ग्राई० एम० एस० है ! 'जोशी मुझे भी वहीं ले जाना चाहता है। साल-दो-साल में तो वहीं जायगा ही । कहता है, तुम्हे मोटर की एजेसी खुलवा दूंगा।' इस तरह ख़याली पुलाव पकाते हुए हम लोग घर आये।