पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६९

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६८ मानसरोवर . 3 हुई। तो भई मुझे बुरा तो लगा; लेकिन अपने सज्जन मित्र का वास्ता था। मेरे ऊपर बेचारे बड़ी कृपा रखते हैं। मेरे पास पत्रिका का कागज़ खरीदने के लिए पचास रुपये रखे हुए थे। वह 'मैंने जोशी को दे दिये । शाम को माथुर ने आकर कहा-जोशी तो चले गये। कहते थे; बाबू साहब को तार आ गया है । बड़ा उदार आदमी है । मालूम ही नहीं होता, कोई बाहरी आदमी है । स्वभाव भी बालकों का-सा है । भौजी की शादी तय करने को कहते थे। लेन-देन का तो कोई ज़िक्र है ही नहीं; पर कुछ नजर तो देनी ही पड़ेगी। बैरिस्टर साहब, जिनसे विवाह हो रहा है, दिल्ली के रहने . वाले हैं। उनके पास जाकर नज़र देनी होगी। जोशीजी चले जायेंगे। अाज मैंने रुपये भी दे दिये । चलिए एक बड़ी चिन्ता सिर-से टली। मैने -रुपये तो तुम्हारे पास न होंगे? माथुर ने कहा-रुपये कहाँ थे साहब ! एक महाजन से स्टाम्प लिखकर लिये, दो रुपये सैकड़े सूद पर। देवीजी ने क्रोध भरे स्वर में कहा--मैं तो उस दुष्ट को पा जाऊँ तो मुँह नोच लू । पिशाच ने इस गरीब को भी न छोड़ा। ढपोरसख बोला--यह क्रोध तो आपको अब आ रहा है न । तब तो आप भी समझती थी, कि जोशी दया और धर्म का पुतला है । देवीजी ने विरोध किया--मैंने उसे पुतला-पुतली कभी नहीं समझा। हाँ तुम्हारी तकलीफो के भुलावे मे पड़ जाती थी। ढपोरसख-तो साहब, इस तरह कोई दो महीने गुज़रे, इस बीच में भी जोशी दो-तीन बार श्राये ; मगर मुझसे कुछ मांगा नहीं। हाँ, अपने बाबू साहब के सबंध में तरह तरह की बाते की, जिनसे मुझे दो-चार गल्प लिखने की सामग्री मिल गई। मई का महीना था। एक दिन प्रातःकाल जोशी आ पहुंचे। मैंने पूछा, तो मालूम हुआ, उनके बाबू साहब नैनीताल चले गये । इन्हें भी लिये जाते थे ; पर उन्होंने हम लोगो के साथ यहां रहना अच्छा समझा और चले आये। देवीजी ने फुलझड़ी छोड़ी-कितना त्यागी था बेचारा । नैनीताल की बहार छोड़कर यहाँ गर्मी में प्राण देने चला आया ।