पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७०

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ढपोरसंख ढपोरसखजी ने इसकी और कुछ ध्यान न देकर कहा-मैंने पूछा-"कोई नई बात तो नहीं हुई वहाँ । जोशी ने हँसकर कहा-मेरे भाग्य में तो नई-नई विपत्तियां लिखी हैं। उनसे कैसे जान बच सकती है। अबकी भी एक नई विपत्ति सिर पड़ी। यह कहिए आपका आशीर्वाद था, जान बच गई, नहीं तो अब तक जमुनाजी में बहा चला जाता होता । एक दिन जमुना किनारे सैर करने चला गया। बहीं तैराकी का मैच था। बहुत से आदमी तमाशा देखने आये हुए थे। मैं भी एक जगह खड़ा होकर देखने लगा । मुझ से थोडी दूर पर एक और महाशय एक युवती के साथ खडे थे । मैंने बातचीत की, तो मालूम हुआ, मेरी ही बिरादरी के हैं । यह भी मालूम हुआ, मेरे पिता और चाचा, दोनो ही से उनका परिचय है। मुझसे स्नेह की बाते करने लगे-तुम्हें इस तरह ठोकरें खाते तो बहुत दिन हो गये ; क्यों नहीं चले जाते, अपने मा बाप के पास । माना कि उनका लोक व्यवहार तुम्हें पसद नहीं ; लेकिन माता-पिता का पुत्र पर कुछ-न-कुछ अधिकार तो होता ही है । तुम्हारी माताजी को कितना दुःख हो रहा होगा। सहसा एक युवक किसी तरफ से आ निकला और वृद्ध महाराय तथा युवती को देखकर बोला--आपको शर्म नहीं आती कि आप अपनी युवती कन्या को हस तरह मेले में लिये खड़े हैं। वृद्ध महाशय का मुँह ज़रा-सा निकल पाया और युवती तुरत घू घट निकालकर पीछे हट गई । मालूम हुआ, कि उसका विवाह इसी युवक से ठहरा हुश्रा है । वृद्ध उदार,सामाजिक विचारों के आदमी थे। परदे के कायल न थे। युवक, वयस में युवक होकर भी खूसट विचारों का आदमी था, परदे का कट्टर पक्षपाती । वृद्ध थोड़ी देर तक तो अपराधी-भाव से बातें करते रहे ; पर युवक प्रतिक्षण गर्म होता जाता था। आख़िर बूढ़े बाबा भी तेज़ हुए। युवक ने अखेिं निकालकर कहा-मैं ऐसी निर्लज्जा से विवाह करना अपने लिए अपमान की बात समझता हूँ। वृद्ध ने क्रोध से कांपते हुए स्वर में कहा-और मैं तुम-जैसे लपट से अपनी कन्या का विवाह करना लज्जा की बात समझता हूँ। . ५