पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७३

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७२ मानसरोवर आदमी न होगा। आपको मैं कष्ट नहीं देना चाहता; लेकिन जिस तरह अब तक आपने मुझे भाई समझकर सहायता दी है, उसी तरह एक बार और दीजिए। मुझे विश्वास था, कि आप इस शुभ कार्य में आपत्ति न करेंगे । इसलिए मैंने वचन दे दिया। अब तो आपको यह डोंगी पार लगानी ही. पड़ेगी। देवीजी बोलीं-मैं कहती थी, उसे एक पैसा मत दो। कह दो, तुम्हारी शादी-विवाह के झझट मे नहीं पड़ते । ढपोरसख ने कहा-हाँ, तुमने अबकी बार ज़रूर समझाया ; लेकिन मैं क्या करता । शादी का मुआमला, उस पर उसने मुझे भी घसीट लिया था, अपनी इज़्नत का कुछ ख़याल तो करना ही पड़ता है। देवीजी ने मेरा लिहाज़ किया और चुप हो गई । अब मैं उस वृत्तान्त को न बढ़ाऊँगा । साराश यह है, कि जोशी ने ढपोर- संख के मत्थे सौ रुपये के कपड़े और सौ रुपये से कुछ ऊपर के गइनों का बोझ लादा । बेचारों ने एक मित्र से सौ रुपये उधार लेकर उनके सफरख़र्च को दिया । खुद ब्याद में शरीक हुए । ब्याह मे ख़ासी धूम-धाम रही । कन्या के पिता ने मेहमानों का आदर-सत्कार खूब किया। उन्हें जल्दी थी ; इस लिए वह खुद तो दूसरे ही दिन चले आये पर माथुर जोशी के साथ विवाह में अत तक रहा । ढपोरसख को आशा थी, कि जोशी ससुराल के रुपये पाते ही माथुर के हाथों भेज देगा, या खुद लेता आयेगा; मगर माथुर भी दूसरे दिन आ गये, खाली हाथ और यह खबर लाये, कि जोशी को ससुराल में कुछ भी हाथ नहीं लगा। माथुर से उन्हें अब मालूम हुआ कि लड़की से जमुना-तट पर मिलने की बात सर्वथा निर्मल थी । इस लड़की से जोशी बहुत दिनों तक पत्र-व्यवहार कर रहा था। फिर तो ढपोरसख के कान खड़े हो गये। माथुर से पूछा-अच्छा ! यह बिल्कुल कल्पना थी --उसकी? माजुर-जी हाँ। ढपोर०-अच्छा, तुम्हारी भांजी के विवाह का क्या हुआ ? मथुरा-अभी तो कुछ नहीं हुआ। ,