पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७५

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1 ७४ मानसरोवर उसकी इन मौलिक चालों पर मैं भी मुग्ध हो गया। बेशक ! अपने फन का उस्ताद है, छटा हुआ गुर्गा । देवीजी बोलीं-सुन ली आपने सारी कथा ? मैंने डरते-डरते कहा--हाँ, सुन तो ली। 'अच्छा, तो अब आपका क्या फैसला है ? (पति की ओर इशारा करके) इन्होंने घोंघापन किया था नहीं ? जिस आदमी को एक-एक पैसे के लिए दूसरों का मुंह ताकना पड़े, वह घर के पांच-छः सौ रुपये इस तरह उड़ा दे, इसे आप उसकी सज्जनता कहेंगे या बेवकूफी ? अगर इन्होंने यह समझकर रुपये दिये होते, कि पानी में फेक रहा हूँ, तो मुझे कोई आपत्ति न थी ; मगर यह बराबर इस धोखे में रहे और मुझे भी उसी धोखे में डालते रहे, कि वह घर का मालदार है और मेरे सब रुपये ही न लौटा देगा; बल्कि और भी कितने सलूक करेगा। जिसका बाप दो हज़ार रुपये महीना पाता हो, जिसके चाचा की आमदनी एक हजार मासिक हो और एक लाख की जायदाद घर में हो, वह और कुछ नही तो युरोप की सैर तो एक बार करा ही सकता था। मैं अगर कभी मना भी करती, तो आप बिगड़ जाते थे और उदारता का उपदेश देने लगते थे। यह मैं स्वीकार करती हूँ, कि शुरू में मैं भी धोखे मे आ गई थी; मगर पीछे से मुझे उसका सन्देह होने लगा था। और विवाह के समय तो मैने ज़ोर देकर कह दिया था, कि अब एक पाई भी न दूंगी। पूछिए झूठ कहती हूँ, या सच ? फिर अगर मुझे धोखा हुश्रा, तो में रहनेवाली स्त्री हूँ। मेरा धोखे में आ जाना क्षम्य है ; मगर यह जो लेखक और विचारक और उपदेशक बनते हैं, यह क्यों धोखे में आये और जब मैं इन्हें समझाती थी; तो यह क्यों अपने को बुद्धिमत्ता का अवतार समझकर मेरी बातों की उपेक्षा करते थे ? देखिए, रू-रिश्रायत न कीजिएगा, नहीं मै बुरी तरह खबर लूगी । मैं निपक्ष न्याय चाहती हूँ।' ढपोरसंख ने दर्दनाक आँखों से मेरी तरफ देखा, जो मानो मान-भिक्षा' मांग रही थीं। उसी के साथ देवीजी की आग्रह, अादेश और गर्व से भरी अखि ताक रही थीं। एक को अपनी हार का विश्वास था, दूसरी को अपनी जीत का । एक रियायत चाहती थी, दूसरी सच्चा न्यायः । घर