पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७८

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डिमांसट्रेशन होगी । मालिक सोचेगा, यह महाशय यों ही हैं । इस सयय दस-पांच रुपये का मुंह न देखना चाहिए। मैं तो अंग्रेजी की विज्ञापनबाज़ी का कायल हूँ कि रुपये मे पद्रह श्राने उसमें लगाकर शेष एक आने में रोज़गार करते हैं । कहीं से दो मोटरे मॅगानी चाहिए। रसिकलाल बोले-लेकिन केराये की मोटरों से यह बात न पैदा होगी, जो आप चाहते हैं । किसी रईस से दो मोटरे मांगनी चाहिए, मारिस हो या नये चाल की श्रास्टिन । घात सच्ची थी। मेख से भीख मिलती है । विचार होने लगा किस रईस से याचना की जाय । अजी वह महाखूसट है। सवेरे उसका नाम ले लो तो दिन भर पानी न मिले। अच्छा सेठजी के पास चले तो कैसा ? मुँह धो रखिए, उसकी मोटरे अफसरों के लिए रिजर्व हैं, अपने लड़के तक को कभी बैठने नहीं देता, आपको दिये देता है। तो फिर कपूर साहब के पास चले। अभी उन्होने नई मोटर ली है। अजी उसका नाम न लो। कोई-न-कोई बहाना करेगा, ड्राइवर नहीं है, मरम्मत मे है । गुरुप्रसाद ने अधीर होकर कहा-तुम लोगों ने तो व्यर्थ का बखेड़ा कर दिया । तांगों पर चलने में क्या हरज था । विनोदबिहारी ने कहा-आप तो घास खा गये हैं । नाटक लिख लेना दूसरी बात है और मुआमले को पटाना दूसरी बात है । रुपये पृष्ठ सुना देगा, अपना-सा मुँह लेकर रह जाओगे। अमरनाथ ने कहा -मैं तो समझता हूँ, मोटर के लिए किसी राजा-रईस की खुशामद करना वेकार है। तारीफ तो जब है कि पाव पाँव चले और वहाँ ऐसा ऐसा रग जमाये कि मोटर से भी ज्यादा शान रहे। विनोदबिहारी उछल पड़े। सब लोग पाव-पाँव चले । वहाँ पहुँचकर किस तरह बाते शुरू होगी, किस तरह तारीफों के पुल बाँधे जायेंगे, किस तरह ड्रामेटिस्ट साहब को खुश किया जायगा, इसपर बहस होती जाती थी। हम लोग कपनी के कैप में कोई दो बजे पहुंचे। वहाँ मालिक साहब, उनके ऐक्टर, नाटककार सब पहले ही से हमारा इतजार कर रहे थे। पान, इलायची, सिगरेट मॅगा लिए गये थे ।