पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८२

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डिमांसट्रेशन - तीसरा दृश्य हास्यमय था। हॅसते-हँसते लोगो की पजिया ने लगी, स्थूलकाय स्वामी की संयत अविचलता भी आसन से डिग गई। चौथा सीन करुणाजनक था । हास्य के वाद करुणा, आँधी के बाद आनेवाली शान्ति थी। विनोद आँखों पर हाथ रखे, सिर झुकाये, जैसे रो रहे थे। मस्तराम बार-बार ठंडी आहे खींच रहे थे और अमरनाथ बार-बार सिसकियाँ भर रहे थे। इसी तरह सीन-पर-सीन और अक-पर-अक समाप्त होते गये, यहाँ तक कि जब रिहर्सल समाप्त हुआ, तो दीपक जल चुके थे। सेठजी अब तक सोंठ बने हुए बैठे थे। ड्रामा समाप्त हो गया ; पर उनके मुखारविंद पर उनके मनोविचार का लेशमात्र भी आभास न था। जड़ भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुसकिराहट थी,न कुतूहल, न हर्ण,न कुछ। विनोदविहारी ने मुग्रामले की बात पूछी-तो इस ड्रामा के बारे श्रीमान् की क्या राय है? सेठजी ने उसी विरक्त भाव से उत्तर दिया-मै इसके विषय में कल निवेदन करूंगा। कल यहीं भोजन भी कीजिएगा। आप लोगों के लायक. भोजन तो क्या होगा, उसे केवल विदुर का साग समझकर स्वीकार कीजिए। पंच पाडव बाहर निकले, तो मारे खुशी के सबकी बाछे खिली जाती थीं।। विनोद-पांच हजार की थैली है । नाक-नाक बद सकता हूँ। अमरनाथ-पांच हज़ार है कि दस, यह तो नहीं कह सकता, खूब जम गया। रसिक-मेरा अनुमान तो चार हजार का है। मस्तराम-और मेरा विश्वास है कि दस हज़ार से कम वह कहेगा ही नहीं। मैं तो सेठ के चेहरे की तरफ ध्यान से देख रहा था। आज ही कह देता , पर डरता था, कहीं ये लोग अस्वीकार न कर दे। उसके होठों पर तो हँसी न थी , पर मगन हो रहा था। गुरुप्रसाद-मैंने पढ़ा भी तो जी तोड़कर। विनोद-ऐसा जान पड़ता था तुम्हारी वाणी पर सरस्वती वैठ गई हैं। सभों की आँखें खुल गई। रसिक-मुझे उसकी चुप्पी से जरा सदेह होता है। n पर रग